________________
१३६
पंचसंग्रह (१)
है और नष्ट अवस्था का दर्शक क्षीणमोहवीतरागछद्मस्थ नामक बारहवां गुणस्थान है । उपशांत कषायों का उद्र ेक संभव है, किन्तु नष्ट होने पर आत्मा को पूर्ण परमात्मदशा प्राप्त करने में कोई अवरोधक कारण नहीं रहता है ।
कषाय (मोहनीयकर्म) के क्षय के साथ और भी दूसरे ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि आत्मगुणों के आच्छादक कर्मों का क्षय हो जाता है, लेकिन अभी भी शरीरादि योगों का सम्बन्ध बना रहने से वह योगयुक्त वीतराग जीव सयोगिकेवली नामक तेरहवां गुणस्थानवर्ती कहलाता है और जब इन शारीरिक योगों का भी वियोग, क्षय हो जाता है तो ज्ञान-दर्शन आदि आत्मरमणतारूप स्थिति बन जाती है । जिसका दर्शक चौदहवां गुणस्थान अयोगिकेवली है ।
इन चौदह गुणस्थानों में आदि के चार गुणस्थानों में दर्शनमोह -- स्वरूपबोध आच्छादक कर्म की और उनसे ऊपर चारित्रमोह - स्वरूप-लाभ आवरक कर्म की अपेक्षा है और अंतिम तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान योगसापेक्ष हैं ।
इस प्रकार ये चौदह गुणस्थान स्व गंतव्य और प्राप्तव्य की ओर अग्रसर आत्मा के विकासदर्शक सोपान हैं ।
यद्यपि गुणस्थानक्रमारोहण की इस संक्षिप्त झांकी में गुणस्थानों की स्वरूपव्याख्या का पूर्वाभास हो जाता है, तथापि प्रत्येक गुणस्थान का कुछ विशेषता के साथ लक्षण समझने के लिए अब संक्षेप में मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों का स्वरूप बतलाते हैं ।
१. मिथ्यात्वगुणस्थान- जीव अजीव आदि तत्त्वों की मिथ्याविपरीत है दृष्टि, श्रद्धा जिसकी उस जीव को मिथ्यादृष्टि कहते हैं । जैसे - किसी व्यक्ति ने धतूरा खाया हो तो उसको सफेद वस्तु भी पीली दिखती है, उसी प्रकार मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उदय से जिस जीव की दृष्टि विपरीत हो, जीव- अजीव आदि के स्वरूप की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org