Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१) इस प्रकार जीवस्थानों में योगों का विचार करने के पश्चात् अब उनमें उपयोगों का निरूपण करते हैं। जीवस्थानों में उपयोग
मइसुयअन्नाण अचक्ख दंसणेक्कारसेस् ठाणेसु । पज्जत्तचउपणिदिसु सचक्खु सन्नीसु बारसवि' ।।८।।
शब्दार्थ-मइसुयअन्ताण ----मति-श्रुत-अज्ञान, अचक्खुदंसण-अचक्ष - दर्शन, एक्कारसेसु–ग्यारह में, ठाणेसु जीवस्थानों में पज्जत्त पर्याप्त,, चउपणिदिसु-चतुरिन्द्रियों और पंचेन्द्रियों में, सचक्खु-चक्ष दर्शन सहित, सन्नीसु- संज्ञी में, बारसवि-सभी बारह ।
गाथार्थ-मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन ये तीन उपयोग ग्यारह जीवस्थानों में होते हैं । पर्याप्त चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में चक्षुदर्शन सहित चार और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में सभी बारह उपयोग होते हैं ।
विशेषार्थ-पूर्व में बताये गये उपयोग के बारह भेदों को अब जीवस्थानों में घटित करते हैं____ 'एक्कारसेसु ठाणेसु'-अर्थात् १. पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, २. अप
प्ति सूक्ष्म एकेन्द्रिय, ३. पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ४. अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ५. पर्याप्त द्वीन्द्रिय, ६. अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, ७. पर्याप्त त्रीन्द्रिय, ८. अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, ६. अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, १०. अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और ११. अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय--इन ग्यारह जीवस्थानों में 'मइसुय - अन्नाण अचक्खुदंसण' - मति-अज्ञान, श्रत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन, यह तीन उपयोग होते हैं । यथाक्रम से जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है१ तुलना कीजिये
एयारसेसु ति त्ति य दोसु चउक्कं च वारमेक्कम्मि । जीवसमासस्सेदे उवओगविही मुणेयव्वा ॥
__ -दिग. पंचसंग्रह ४/२१
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