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पंचसंग्रह (१) कार्मणयोग तो अपान्तरगति और उत्पत्ति के प्रथम समय में, औदारिकमिश्र अपर्याप्त अवस्था में और औदारिक, मनोयोगचतुष्टय, वचनयोगचतुष्टय पर्याप्त अवस्था में तथा किन्हीं किन्हीं तिर्यंचों में वैक्रियलब्धि होने से तदपेक्षा वैक्रिय और वैक्रियमिश्र होने से तेरह योग होते हैं।'
आहारकद्विक योग सर्वविरत चतुर्दशपूर्वधर को होते हैं, लेकिन तिर्यंचगति में सर्वविरत चारित्र संभव नहीं है। अतः उसमें आहारकद्विक-आहारक और आहारकमिश्र काययोग नहीं होते हैं ।
मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान, अविरत सम्यग्दृष्टि, सासादन, अभव्य और मिथ्यात्व इन सात मार्गणाओं में आहारकद्विक के बिना जो तेरह योग माने गये हैं, उनमें से मनोयोगचतुष्टय, वचनयोगचतुष्टय, औदारिक और वैक्रिय ये दस योग तो पर्याप्त अवस्था में, कार्मण काययोग विग्रहगति और उत्पत्ति के प्रथम समय में और औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र ये दो योग अपर्याप्त अवस्था में होते हैं।
अब शेष रही औपशमिक सम्यक्त्व और स्त्रीवेद इन दो मार्गणाओं में आहारकद्विक के सिवाय तेरह योग मानने को कारण सहित स्पष्ट करते हैं।
औपशमिक सम्यक्त्व में आहारकद्विक योग न मानने पर जिज्ञासु का प्रश्न है
प्रश्न-तिर्यंचगति आदि उक्त मार्गणाओं में तो चौदह पूर्व के अध्ययन का अभाव होने से आहारकद्विक का न होना माना जा सकता है, परन्तु औपशमिक सम्यक्त्व तो चौथे से लेकर ग्यारहवें
१ दिगम्बर साहित्य में तिर्य चगति में ग्यारह योग माने गये हैं
वेउव्वाहार दुगूण तिरिए। दि. पंचसंग्रह ४/४४ लेकिन यह कथन सामान्य तिर्यच की विवक्षा से किया गया समझना चाहिए।
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