Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
११३
योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १३-१४ सामान्य से सभी मनुष्यों में पाई जाती है और गुणस्थानों की अपेक्षा अपूर्वकरणादि संयोगिकेवली पर्यन्त गुणस्थानों में । अतः शुक्ललेश्या तेरहवें गुणस्थान तक मानी है।
प्रत्येक जीव जन्म से लेकर जीवनपर्यन्त लोमाहार आदि आहारों में से किसी न किसी आहार को ग्रहण करता रहता है और यह क्रम तेरहवें गुणस्थान तक चलता है। क्योंकि तेरहवें गुणस्थान तक जीवनमुक्त दशा नहीं है । उक्त मार्गणाओं के अतिरिक्त तीन वेद, संज्ञित्व और भव्यत्व मार्गणायें चौदहवें गुणस्थान तक पाई जाती हैं। ___इन योग, वेद आदि मार्गणाओं में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि आदि सभी जीवों का ग्रहण होने से बारह उपयोग माने जाते हैं और संज्ञी मागंणा के असंज्ञी भेद में मति-अज्ञान, श्रत-अज्ञान तथा चक्षु अचादर्शन यह चार उपयोग होते हैं।
वेदत्रिक मार्गणाओं में माने गये बारह उपयोगों में केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दो उपयोगों का समावेश है। इनको द्रव्यवेद की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि अभिलाष रूप भाववेद तो नौवें गुणस्थान तक ही होता है । यही दृष्टि वेदों को चौदहवें गुणस्थान तक मानने के लिए भी जानना कि द्रव्यवेद की अपेक्षा सभी चौदह गुणस्थान वेदमार्गणा में होते हैं किन्तु भाववेद में आदि के नौ गुणस्थान जानना चाहिए।
'संजमसंमे नव' अर्थात् पूर्ण संयम-यथाख्यातसंयम और पूर्ण सम्यक्त्व-क्षायिकसम्यक्त्व इन दो मार्गणाओं में मिथ्यात्वोदय सहभावी मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञान उपयोग न होने से शेष मतिज्ञान आदि नौ उपयोग होते हैं। क्योंकि क्षायिकसम्यक्त्व के समय मिथ्यात्व का सर्वथा अभाव ही होता है। मिथ्यात्व के पूर्ण रूप से क्षय होने पर ही क्षायिकसम्यक्त्व होता है और यथाख्यातसंयम यद्यपि ग्यारह से चौदहवें गुणस्थान तक पाया जाता है और ग्यारहवें गुणस्थान में मिथ्यात्व भी है लेकिन वह सत्तागत है, उदयगत नहीं। इसलिए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |