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पंचसंग्रह (१) ज्ञान, और केवलदर्शन के होने पर मतिज्ञानादि का अभाव क्यों माना है ? जैसे चारित्रावरणीय का क्षयोपशम होने से सामायिक आदि चारित्र उत्पन्न होते हैं और चारित्रावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय होने पर यथाख्यातचारित्र उत्पन्न होता है, परन्तु उसकी उत्पत्ति होने पर भी सामायिक आदि चारित्रों का नाश नहीं होता है, इसी प्रकार केवलज्ञान की उत्पत्ति होने पर भी मतिज्ञानादि का नाश नहीं होना चाहिए।
उत्तर-केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर मतिज्ञानादि के नाश मानने का कारण यह है कि जैसे सूर्य के सामने गाढ़ बादलों का समूह आया हो तब भी इतना प्रकाश तो रहता ही है कि दिन और रात्रि का स्पष्ट विभाग मालूम हो सके तथा उस प्रकाश के सामने यदि चटाई की झोपड़ी हो तो उसके छिद्रों में से छेदों के अनुरूप आया हुआ प्रकाश झोपड़ी में विद्यमान घट-पटादि पदार्थों को दिखाता है। किन्तु वह प्रकाश उस झोपड़ी का अपना नहीं है, बाहर में विद्यमान सूर्य का है । अब यदि उस झोपड़ी को नष्ट कर दें और बादलों के हट जाने पर सूर्य पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाये तो वह घट-पटादि पदार्थों को पूर्णरूपेण प्रकाशित करता है ।।
इसी प्रकार गाढ़ केवलज्ञानावरण रूप बादलों से केवलज्ञान रूप सूर्य के आवृत्त होने पर भी जड़-चेतन का स्पष्ट विभाग मालूम हो, ज्ञान का इतना प्रकाश तो उद्घाटित रहता ही है । उस प्रकाश को मतिज्ञानावरणादि आवरण आच्छादित करते हैं । उनके क्षयोपशम रूप यथायोग्य विवर-छिद्रों में से निकला हुआ प्रकाश जीवादि पदार्थों का यथायोग्य रीति से बोध कराता है और क्षयोपशम के अनुरूप मतिज्ञान आदि का नाम धारण करता है। ___ यहाँ चटाई की झोपड़ी के छेदों में से आये हए प्रकाश के सदृश मतिज्ञानावरणादि के क्षयोपशम रूप विवरों में से आगत प्रकाश केवलज्ञान का ही है । अव यदि उन मतिज्ञानावरणादि आवरण रूप झोपड़ी
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