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पंचसंग्रह (१)
कर्ममल के आगमन का द्वार योग है और आत्मगुणों के विकास का प्रबल अवरोधक मोहकर्म है । जब तक मोहकर्म की दर्शन और चारित्र अवरोधक दोनों शक्तियां प्रबल रहती हैं, तब तक कर्मों का आवरण सघन रहता है और उसके कारण आत्मा का यथार्थ स्वरूप प्रगट नहीं हो पाता है । लेकिन आवरणों के क्षीण, निर्जीण या क्षय होने पर आत्मा का यथार्थ स्वरूप व्यक्त होता है। परम स्वरूप-बोध और स्वरूप-रमणता ही जीव का लक्ष्य है और इसी में सफलता प्राप्त करना उसके परम पुरुषार्थ की चरम परिणति है। ___ आगमों में जीवों के स्वरूपविशेषों, भावात्मक परिणतियों-भेदों का विचार विस्तार से किया है । लेकिन उनमें गुणस्थान शब्द का प्रयोग देखने में नहीं आता है, प्रत्युत जीवस्थान शब्द के द्वारा गुणस्थान के अर्थ को अभिव्यक्त किया है और जीवस्थान की रचना का आधार गुणस्थान की तरह कर्मविशुद्धि बताया है। अतः यही मानना चाहिए कि आगमगत जीवस्थान पद के लिए आगमोत्तर कालीन ग्रंथों और कर्मग्रंथों में प्रयुक्त गुणस्थान पद में गुण शब्द की मुख्यता के अतिरिक्त आशय में अन्तर नहीं है । शाब्दिक भेद होने पर भी दोनों समानार्थक हैं।
संसार में जीव अनन्त हैं । कतिपय अंशों में बाह्य शरीर, इन्द्रिय, गति आदि की अपेक्षा समानता जैसी दिखती है, फिर भी प्रत्येक जीव एक जैसा नहीं है । इसीलिए शास्त्रों में इन्द्रिय, वेद, ज्ञान, उपयोग, लक्षण आदि विभागों के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से उनके भेद बताकर वर्ग बनाये हैं और ऐसा दिखता भी है । लेकिन बाह्य की अपेक्षा आंतरिक ज्ञानादि गुणों के स्वरूप की विशेषतायें तो असंख्य प्रकार
१ कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता......"
-समवायांग १४/५
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