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पंचसंग्रह (१)
रणादि पांच गुणस्थानों से मन और वचन योग के चार-चार और औदारिक इस प्रकार नो योग होते हैं ।
मिश्रगुणस्थान में वैक्रिययोग सहित दस, अप्रमत्तविरतगुणस्थान में आहारक सहित ग्यारह, देशविरत में वैक्रियद्विक सहित ग्यारह और प्रमत्तविरत में आहारकद्विक सहित तेरह योग होते हैं ।
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अयोगिकेवलीगुणस्थान योगरहित है और सयोगिकेवलीगुणस्थान में मन और वचन के दो-दो, औदारिकद्विक और कार्मण ये सात योग होते हैं ।
विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में गुणस्थानों में योगों की संख्या बतलाई है कि प्रत्येक गुणस्थान में कितने और कौन-कौन से योग सम्भव हैं। योग के मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन तीन मूल भेदों के क्रमशः चार, चार और सात भेदों के नाम तो पूर्व में कहे जा चुके हैं और यहाँ प्रारम्भ में गुणस्थानों के भेद, नाम व लक्षण न बताकर बंधकद्वार गाथा ८३ में बताये हैं । लेकिन उपयोगिता की दृष्टि से गुणस्थानों में योगों का निर्देश करने के पूर्व गुणस्थानों के भेद आदि जान लेना आवश्यक होने से पहले उनके भेद, नाम और लक्षण कहते हैं ।
गुणस्थानों के भेद'
गुणस्थान का लक्षण पूर्व में बताया जा चुका है कि सामान्य से चतुर्गति रूप संसार में विद्यमान सभी जीवों के गुणों में न्यूनाधिकता नहीं है । गुणों की दृष्टि से सभी आत्मायें समान हैं । लेकिन संसारी आत्माओं के गुण आवरक कर्मों द्वारा आच्छादित हैं, उन आवरक कर्मों
१ गुणस्थान के भेद, लक्षण आदि का विस्तार से विचार द्वितीय कर्मग्रथ में किया है । उसी का संक्षिप्त सारांश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।
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