Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १५
११७.
और केवलज्ञानावरण रूप सघन बादलों का सर्वथा नाश हो जाए तो पूर्ण सूर्य के प्रकाश की तरह वह पूर्ण केवलज्ञान का ही प्रकाश प्रकाशमान होता है न कि मतिज्ञान आदि के नाम से कहे जाने वाले केवल - ज्ञान का । क्योंकि क्षयोपशम के अनुरूप जिस प्रकाश को पहले मतिज्ञान आदि के नाम से कहा जाता था वह केवलज्ञान का ही प्रकाश था । केवलज्ञानावरणीय कर्म का उदय और मतिज्ञानावरणादि का क्षयोपशम था, उससे जो अपूर्ण प्रकाश था वह आवरणों के सर्वथा दूर हो जाने से पूर्ण प्रकाश में समाविष्ट हो गया और मतिज्ञान आदि नाम भी नष्ट हो गए । अतएव यह समझना चाहिए कि केवलज्ञान के होने पर मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक उपयोग नहीं होते है-- केवलदुगेण सेसा न होंति उवओगा ।
केवलद्विक के साथ अन्य उपयोग न होने के विषय में किन्हींकिन्हीं आचार्यों का दृष्टिकोण है कि सूर्योदय के होने पर यद्यपि ग्रह, नक्षत्र आदि सभी विद्यमान रहते हैं लेकिन निष्फल होने से उनकी विवक्षा नहीं की जाती है, उसी प्रकार केवलज्ञान होने पर सयोगि आदि गुणस्थानों में मतिज्ञान आदि ज्ञानों के रहने पर भी निष्फल होने से उनकी विवक्षा नहीं की जाती है । "
इस प्रकार से केवलद्विक उपयोगों के साथ अन्य उपयोगों के न होने के कारण को स्पष्ट करने के बाद अब यह बताते हैं कि यद्यपि सम्यक्त्वभावी उपयोगों के साथ मिथ्यात्वनिमित्तक और मिथ्यात्वभावी उपयोगों के साथ सम्यक्त्वनिमित्तक छाद्मस्थिक उपयोग नहीं होते हैं । लेकिन इस नियम का यह अपवाद है
१ यहाँ विवक्षा न करने का कारण यह है कि जब पूर्ण ज्ञान हो तब अपूर्ण ज्ञान निष्क्रिय है । परन्तु यह आचार्य प्रत्येक ज्ञान और उसके आवरणों को अलग-अलग मानें तभी यह कहा जा सकता है कि ज्ञानावरण का सर्वथा नाश होने से मतिज्ञानादि ज्ञान हैं— इस तरह ज्ञानों का सद्भाव
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