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पंचसंग्रह (१) इन दोनों मार्गणाओं में अज्ञानत्रिक उपयोग नहीं होते हैं और शेष प्राप्त उपयोगों को इस प्रकार जानना चाहिए--
छद्मस्थ अवस्था में पहले चार ज्ञान-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनपर्यायज्ञान तथा चक्षुदर्शन, अचक्ष दर्शन, और अवधिदर्शन यह तीन दर्शन कुल सात उपयोग तथा केवली भगवन्तों के केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग होते हैं। इस प्रकार उक्त सात और केवल द्विक को मिलाने से कुल नौ उपयोग होते हैं ।
शुक्ललेश्यामार्गणा के उपयोगों का पृथक् से निर्देश किया है अतः उससे शेष रही कृष्ण, नील, कापोत, तेजो और पद्म, पांच लेश्या तथा कषायचतुष्क-क्रोध, मान, माया, लोभ इन नौ मार्गणाओं में केवलज्ञान और केवलदर्शन के सिवाय मतिज्ञान आदि दस उपयोग होते हैं। इसका कारण यह है कि कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यायें छठे गुणस्थान तक, तेज और पद्म लेश्यायें सातवें गुणस्थान तक होती हैं तथा क्रोधादि कषायचतुष्क का उदय दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है और ये गुणस्थान क्षायोपशमिक भावों की अपेक्षा रखते हैं और केवलद्विक उपयोग कृष्णादि लेश्याओं और क्रोधादि के रहने पर नहीं होते हैं किन्तु अपने-अपने आवरणकर्म के निःशेष रूप से क्षय से होने वाले हैं और तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में पाये जाते हैं । इसलिए कृष्णादि नौ मार्गणाओं में दस उपयोग माने हैं।
इस प्रकार से पृथक्-पृथक् नामोल्लेखपूर्वक कुछ एक मार्गणाओं में संभव उपयोगों का निर्देश करने के बाद अब शेष रही मार्गणाओं में उपयोगों को जानने के लिए सूत्र बतलाते हैं
सम्मत्तकारणेहि मिच्छनिमित्ता न होंति उवओगा। .. केवलदुगेण सेसा संतेव अचक्खुचक्खूसु ॥१५॥ - शब्दार्थ-सम्मत्तकारणेहि-सम्यक्त्वकारणक-निमित्तक उपयोगों के साथ मिच्छनिमित्ता-मिथ्यात्वनिमित्तक, न होति-नहीं होते हैं, उवओगा
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