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योगोपयोग मार्गणा अधिकार : गाथा १३-१४
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तथा मार्गणास्थानों के लक्षण, भेद आदि पहले बताए जा चुके हैं । अब उन उपयोग भेदों को मार्गणास्थानों में घटित करते हैं कि प्रत्येक मार्गणा में कितने उपयोग होते हैं । जिसका प्रारम्भ मनुष्यगति से किया है ।
'मणुयगईए बारस' - मनुष्यगति में सभी बारह उपयोग होते हैं । मनुष्यगति से उपयोग विचार का प्रारम्भ करने का कारण यह है कि मनुष्यगति पहले से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक पाई जाती है और उसमें मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, देशविरति केवलज्ञानी आदि सभी जीवों का ग्रहण होने से बारह उपयोग माने गये हैं ।
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यह बात तो हुई मनुष्यगति में संभव उपयोगविषयक, लेकिन 'अन्नसु' - अन्य गतियों अर्थात् मनुष्यगति से शेष रही देव, तिर्यंच और नरकगति में ' मणकेवलवज्जिया नव' मनपर्यायज्ञान और केवलद्विक -- केवलज्ञान, केवलदर्शन इन तीन के सिवाय शेष नौ उपयोग होते हैं । इन तीन मार्गणाओं में मनपर्यायज्ञान और केवलद्विक उपयोग इसलिए नहीं माने जाते हैं कि ये उपयोग सर्वविरतिसापेक्ष हैं । लेकिन देवगति, तिर्यंचगति और नरकगति में सर्वविरति संभव नहीं है । इसलिए उक्त तीन उपयोगों को छोड़कर शेष नौ उपयोग माने जाते हैं ।
'इगिथावरेसु तिन्न' - इन्द्रियमार्गणा और कायमागंणा के भेद क्रमशः एकेन्द्रिय और पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति रूप पांच स्थावरों में तथा उपलक्षण से द्वीन्द्रिय और नीन्द्रिय इन आठ मार्गणाओं में मति- अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और अचक्षुदर्शन यह तीन उपयोग होते हैं । उपलक्षण से द्वीन्द्रिय और वीन्द्रिय को ग्रहण करने का कारण यह है कि इनमें भी एकेन्द्रिय जीवों की तरह चक्षुरिन्द्रिय नहीं होती है । इसलिए चक्षुरिन्द्रिय सापेक्ष उपयोग भी इनमें नहीं पाया जाता है तथा सम्यक्त्व न होने से मतिज्ञान आदि पांच ज्ञान, अवधि व केवलदर्शन
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