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पंचसंग्रह (१) चौथे और पांचवें समय में कार्मणयोग होता है । आहारकद्विक और वैक्रिय द्विक इन चार योगों को यथाख्यातसंयम में न मानने का कारण यह है कि ये चारों प्रमाद सहचारी हैं किन्तु यह चारित्र अप्रमाद अवस्थाभावी ग्यारहवें से लेकर चौदहवें तक के चार गुणस्थानों में होता है। .. केवलज्ञान और केवलदर्शन मार्गणाओं में सत्यमनोयोग, असत्यामृषामनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्यामृषावचनयोग, औदारिक,
औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग यह सात योग होते हैं । इसका कारण यह है कि सत्य और असत्यामृषा मनोयोग मनपर्यायज्ञानी अथवा अनुत्तर विमानवासी देवों के मन द्वारा शंका पूछने पर उसका मन द्वारा उत्तर देते समय तथा यही दोनों वचनयोग देशना देते समय होते हैं तथा सयोगिकेवली को अष्ट सामयिक केवलिसमुद्घात के दूसरे से सातवें तक छह समयों को छोड़कर औदारिकयोग तो सदैव रहता ही है तथा औदारिक मिश्र केवलिसमुद्घात के दूसरे, छठे और सातवें समय में तथा कार्मण योग तीसरे, चौथे, पांचवें समय में होता है । इसलिए केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दो मार्गणा. में सत्य, असत्यामृषा मनोयोग, सत्य, असत्यामृषा वचनयोग, औदारिक, औदारिक मिश्र और कार्मण यह सात योग माने जाते हैं।
असंज्ञो मार्गणा में औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक, कार्मण और असत्यामृषावचनयोग यह छह योग होते हैं । क्योंकि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और संमूच्छिम पंचेन्द्रिय ये सभी जीव असंज्ञी ही होते हैं। इसलिए औदारिकद्विक आदि कार्मण पर्यन्त पांच योग तो वायुकायिक व एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा तथा द्वीन्द्रियादि में वचनयोग की साधन भाषालब्धि होने तथा उनकी भाषा असत्यामृषा रूप होने से असत्यामृषा वचनयोग होता है। इसी कारण असंज्ञी मार्गणा में छह योग कहे गये हैं।
अनाहारकमार्गणा में एक कार्मण काययोग ही होता है । यहाँ
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