Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१) शेष तेरह योग होते हैं। क्योंकि कार्मण काययोग विग्रहगति तथा उत्पत्ति के प्रथम समय में और औदारिकमिश्र अपर्याप्त अवस्था में होता है और उस समय में पर्याप्त अवस्थाभावी मनोयोग, संयम आदि का अभाव है । इसलिए ये दो योग नहीं होते हैं ।
चक्षुदर्शन मार्गणा में कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र इन चार के सिवाय शेष ग्यारह योग होते हैं।
परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसंपराय संयम इन दो संयम मार्गणाओं में कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रियद्विक और आहारकद्विक इन छह योगों के बिना मनोयोग और वचनयोग के चार-चार भेद और औदारिक काययोग ये नौ योग होते हैं। इसका कारण यह कि संयम पर्याप्त अवस्था में होता है । इसलिए अपर्याप्त अवस्थाभावी कार्मण
और औदारिक मिश्रयोग इनमें नहीं पाये जाते हैं तथा वैक्रिय और वैक्रियमिश्र इन दो योगों के न होने का कारण यह है कि वैक्रियद्विक लब्धिप्रयोग करने वाले मनुष्य को होते हैं और लब्धिप्रयोग में औत्सुक्य व प्रमाद संभव है, किन्तु परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसंपराय संयम प्रमाददशा में नहीं होते हैं। इन दोनों संयम के धारी अप्रमादी होते हैं । अप्रमादी होने से लब्धि का प्रयोग नहीं करते हैं । अतः वैक्रियद्विक योग इन दोनों संयमों में नहीं होते हैं । आहारक और आहारकमिश्र यह दो योग भी इन दोनों संयमों में इसलिए नहीं पाये जाते हैं कि आहारक और आहारकमिश्र ये दो योग चतुर्दश पूर्वधर प्रमत्त मुनि को ही होते हैं, किन्तु परिहारविशुद्धि संयमी कुछ कम दस पूर्व का पाठी होता है और सूक्ष्मसंपराय संयमी यद्यपि चतुर्दश पूर्वधर होता है लेकिन अप्रमत्त है । अतः इन दोनों संयमों में आहारकद्विक योग नहीं माने हैं।
इस प्रकार कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रियद्विक और आहारकद्विक ये छह योग संभव नहीं होने से शेष रहे मनोयोग और बचनयोग के
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