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योगोपयोग मार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२
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छंदोस्थापना, दर्शनमार्गणा में चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, लेश्या मार्गणा में - कृष्णादि छह लेश्या', भव्यमार्गणा में - भव्य, संज्ञीमार्गणा में - संज्ञी, सम्यक्त्वमार्गणा में - क्षायोपशमिक, क्षायिक, आहारकमार्गणा में आहारक ।
इनके अतिरिक्त शेष मार्गणाओं में आहारकद्विक काययोग नहीं होते हैं ।
प्रत्येक मार्गणा में संभव योग
ऊपर कितनी ही मार्गणाओं में निषेधमुखेन अमुक योगों का असद्भाव तथा कितनी ही मार्गणाओं में विधिमुखेन सद्भाव बतलाया है । लेकिन उक्त कथन संक्षेप में होने से यह स्पष्ट नहीं होता है कि प्रत्येक मार्गणास्थान में कुल मिलाकर कितने योग होते हैं ? अतः सरलता से बोध कराने के लिए अब समान संख्या में प्राप्त होने वाले योगों की अपेक्षा वर्ग बनाकर प्रत्येक मार्गणा में संभव योगों का निर्देश करते हैं ।
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तिर्यंचगति, स्त्रीवेद, मति अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञान, र अविरति, सासादन, अभव्य, मिथ्यात्व, औपशमिक सम्यक्त्व, इन दस मार्गणाओं में आहारकद्विक के सिवाय तेरह योग होते हैं । अर्थात् इन दस मार्गणाओं में मनोयोगचतुष्टय, वचनयोगचतुष्टय, औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मण यह तेरह योग होते हैं । जिनका यथाक्रम से स्पष्टीकरण इस प्रकार है
ग्रन्थकार आचार्य ने पीत आदि तीन शुभ लेश्याओं में आहारकद्विक योग माने हैं—लेश्याद्वारे शुभलेश्यात्रये ।
२ पूर्व में विभंगज्ञान में औदारिकमिश्र का निषेध किया है और यहाँ उसको बतलाया है | तो इसका कारण ऐसा प्रतीत होता है कि अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, इसलिये पहले निषेध किया लेकिन कोई देवगति से लेकर आये तो मनुष्यगति में संभव है । इसीलिये यहाँ औदारिकमिश्र को ग्रहण किया गया है ।
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