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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२
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गुणस्थान तक होता है और इनमें छठे से लेकर ग्यारहवें तक के गुणस्थानों में सर्वविरति होती है तो वहाँ आहारकद्विक क्यों नहीं होते हैं ?
उत्तर-उपशम सम्यक्त्व के दो प्रकार हैं--ग्रंथि-भेद-जन्य, उपशम-श्रेणी वाला। इनमें से अनादि मिथ्यात्वी जो पहले गुणस्थान में तीन करण करके ग्रंथि-भेद-जन्य उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, उस समय तो चौदह पूर्व का अभ्यास होता ही नहीं है। जिससे आहारकद्विक हो सकें और जो श्रमणपर्याय में चारित्र-मोहनीय की उपशमना करने के लिए उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद तत्काल ही चारित्र-मोहनीय की उपशमना का प्रयत्न करते हैं, वे कोई लब्धि हो तब भी उसका प्रयोग नहीं करते हैं, इसलिए तब भी उनको आहारकद्विक नहीं होते हैं। ___सारांश यह है कि उपशम श्रेणी पर आरूढ जीव श्रेणी में प्रमाद का अभाव होने से आहारक शरीर करता ही नहीं है । क्योंकि आहारक शरीर का प्रारम्भ करने वाला लब्धि-प्रयोग के समय उत्सुकतावश प्रमादयुक्त होता है और आहारक काययोग में जो विद्यमान है, वह स्वभाव से ही उपशम-श्रेणि मांडता नहीं । इस प्रकार परस्पर विरोध होने से उपशम सम्यक्त्व में आहारकद्विक योग नहीं माने जाते हैं। ___ आहारकद्विक के सिवाय शेष रहे मनोयोग-चतुष्टय आदि तेरह योग औपशमिक सम्यक्त्व में इस प्रकार समझना चाहिए कि मनोयोगचतुष्टय, वचनयोग-चतुष्टय, औदारिक और वैक्रिय, यह दस योग । पर्याप्त अवस्था में और औदारिक-मिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण अपर्याप्त अवस्था में पाये जाते हैं। वैक्रिय और वैक्रियमिश्र योग देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए ।
यहाँ कदाचित् यह कहा जाये कि उपशमश्रेणि में आयु क्षय होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न होने से वहाँ अपर्याप्त अवस्था में उपशम सम्यक्त्व होता है । अतः उस अपेक्षा से कार्मण और वैक्रिय- .
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