Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह ( १ )
मिश्र योग माना जा सकता है, औदारिकमिश्र नहीं। तो इसका उत्तर यह है कि कार्मग्रंथिक मतानुसार मनुष्य तिर्यच को अपर्याप्त अवस्था में और केवलिसमुदघात इन तीन स्थितियों में औदारिक मिश्र योग होता है । लेकिन केवली को उपशम सम्यक्त्व होता नहीं और मनुष्य तिर्यंच अपर्याप्त अवस्था में नवीन सम्यक्त्व प्राप्त करते नहीं एवं श्रेणिप्राप्त जीव मर कर देवगति में जाते हैं । लेकिन सिद्धान्त में उत्तर वैक्रिय करते समय मनुष्य और तिर्यंचों को प्रारंभ काल में औदारिकमिश्र योग होता है और उस समय यदि जीव नवीन सम्यक्त्व प्राप्त करे तो उसकी अपेक्षा औपशमिक सम्यक्त्व में औदारिकमिश्र काययोग माना जा सकता है । इस सैद्धान्तिक दृष्टि से औपशमिक सम्यक्त्व में औदारिकमिश्र योग मानने का यहाँ उल्लेख किया है ।
स्त्रीवेद में आहारकद्विक के सिवाय तेरह योग इस प्रकार संभव हैं—
मनोयोग-चतुष्क, वचनयोग-चतुष्क, वैक्रियद्विक और औदारिक, ये ग्यारह योग मनुष्य, तिर्यंच स्त्री को पर्याप्त अवस्था में, वंक्रियमिश्र काययोग देव स्त्री को अपर्याप्त अवस्था में और कार्मण काययोग पर्याप्त मनुष्य स्त्री को केवलिसमुदुघात अवस्था में होता है ।
स्त्रीवेद में आहारकद्विक योग न मानने का कारण यह है कि सर्वविरति संभव होने पर भी स्त्री जाति को दृष्टिवाद -- जिसमें चौदह पूर्व हैं - पढ़ने का निषेध है । इस निषेष का कारण द्रव्यरूप स्त्रीवेद जानना चाहिए, भावरूप स्त्रीवेद नहीं । क्योंकि यहाँ इसी प्रकार की विवक्षा है । द्रव्यवेद का मतलब बाह्य आकार है । आहारकद्विक चौदह पूर्वधारी को होते हैं और स्त्रियों को दृष्टिवाद पढ़ने का निषेध होने से उनको चौदह पूर्व का अभ्यास नहीं होता है तो आहारकद्विक नहीं हो सकते हैं । इसी कारण स्त्रीवेद में आहारकद्विक काययोग मानने का निषेध किया है ।
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