Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२
___ मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, काययोग, पुरुषवेद, नपुंसकवेद', कषायचतुष्क, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन कृष्णादिलेश्याषट्क, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, भव्य, संज्ञी और आहारक, इन छब्बीस मार्गणाओं में सभी पन्द्रह योग होते हैं।
इन छब्बीस मार्गणाओं का सम्बन्ध मनुष्य के साथ है। अर्थात् ये छब्बीस मार्गणायें मनुष्यों में पाई जा सकती हैं और मनुष्य में सभी योग संभव हैं । इसलिए इनमें सभी योग माने जाते हैं। यह इस प्रकार समझना चाहिए कि कार्मणकाययोग अन्तरालगति और उत्पत्ति के प्रथम समय में तथा केवलिसमुद्घात के तीसरे, चौथे, पांचवें समय में, औदारिकमिश्र अपर्याप्त अवस्था में, मनोयोगचतुष्टय, वचनयोगचतुष्टय, औदारिक योग पर्याप्त-अवस्था तथा वैक्रियद्विक, आहारकद्विक उस-उस लब्धिप्रयोग के समय में । ___यद्यपि कहीं-कहीं यह भी कथन मिलता है कि आहारकमार्गणा में कार्मणकाययोग के सिवाय अन्य सभी (१४ योग) होते हैं और इसके लिए युक्ति यह है कि उत्पत्ति के प्रथम समय में जीव जो आहार करता है, उसमें गृह्यमाण पुद्गलों के कारण होने से कार्मण काययोग मानने की जरूरत नहीं है । तो इसका समाधान यह है कि प्रथम समय में कार्मण काययोग से ही आहार का ग्रहण होता है और ग्रहण किए गए पुद्गल दूसरे समय से लेकर शरीर पूर्ण होने तक १ दिगम्बर कार्मन थिकों ने नपुंसकवेद में आहारकद्विक योग नहीं माने हैंइत्थी संढम्मि आहारदुगूणा ।
–दि० पंचसंग्रह ४/४७ २ दिगम्बर कार्मन थिकों ने आहारक मार्गणा में कार्मण काययोग को नहीं माना है
आहारे कम्मूणा। -दि० पंचसंग्रह ४/५४
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