Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२
६७ विभंगज्ञान मनुष्य तियंचों को अपर्याप्त अवस्था में उत्पन्न ही नहीं होता है । यही बात देव और नारकों के लिये भी समझना चाहिये कि भवधारणीय शरीर वैक्रिय होने से उनमें भी औदारिकमिश्र और औदारिक काययोग नहीं होते हैं तथा गाथा का द्वितीय पादगत 'अपि' शब्द बहलार्थक होने से यह अर्थ समझना चाहिये कि चक्षुदर्शन और अनाहारक मार्गणा में औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र यह तीनों काययोग नहीं होते हैं। __ अनाहारक और चक्षुदर्शन में औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र तीनों काययोग न मानने का कारण यह है कि अनाहारक अवस्था विग्रहगति में पाई जाती है और उस समय सिर्फ कार्मण काययोग होता है किन्तु अन्य कोई औदारिक आदि शरीर नहीं होते हैं । औदारिक आदि शरीर तो शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने के पश्चात् बनते हैं और जब बनते हैं तब कार्मण और औदारिक आदि शरीरों की मिश्र अवस्था संभव है, इससे पूर्व नहीं। इसीलिये अनाहारक मार्गणा में औदारिकमिश्र आदि तीनों काययोग नहीं माने जाते हैं तथा चक्षुदर्शन में औदारिकमिश्र आदि तीनों काययोग न मानने का कारण यह है कि चक्षुदर्शन अपर्याप्त दशा में नहीं पाया जाता है । अतः ये अपर्याप्तदशाभावी औदारिकमिश्र, वैक्रिय मिश्र और आहारकमिश्र काययोग भी उसमें संभव नहीं हैं। ___ कदाचित् यह कहा जाये कि अपर्याप्त अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्णन बन जाने के बाद चक्षुदर्शन मान लिया जाये तो उसमें अपर्याप्त अवस्थाभावी औदारिकमिश्र काययोग का अभाव कैसे माना जा सकता है ? तो इसका उत्तर यह है कि पूर्व में गाथा ७ के प्रसंग में मतान्तर का उल्लेख किया है। जो अपर्याप्त अवस्था में शरीरपर्याप्ति पूर्ण न हो जाने तक मिश्रयोग मानता है और हो जाने के बाद नहीं मानता है । इस मत के अनुसार अपर्याप्त अवस्था में जब चक्षुदर्शन होता है, तब मिश्रयोग नहीं होता है, जिससे कि चक्षुदर्शन में मिश्रयोग नहीं मानना ठीक है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |