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पंचसंग्रह (१)
कार्मण काययोग होता है । अन्यत्र विवक्षा से सद्भाव, असद्भाव समझना चाहिये। जिन मार्गणाओं में कार्मण काययोग नहीं पाया जाता है, उनके नाम इस प्रकार हैं-चक्षुदर्शन, मनपर्यायज्ञान, विभंगज्ञान, आहारक मार्गणा ।
चक्षु दर्शनमार्गणा में कार्मणकाययोग न मानने का कारण यह है कि कार्मणकाययोग विग्रहगति में होता है, लेकिन वहाँ चक्षुदर्शन का अभाव है । यद्यपि लब्धि की अपेक्षा वहाँ भी चक्षुदर्शन पाया जाता है, लेकिन उसका यहाँ विचार नहीं किया जा सकता है । क्योंकि लब्धि अपर्याप्तक जीवों के मति- अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन यह तीन उपयोग होते हैं । मनपर्यायज्ञान संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्यों में पाया जाता है तथा विभंगज्ञान पर्याप्तक संज्ञी के होता है, अतः उस समय कार्मणकाययोग संभव नहीं है । आहारक और कामणकाययोग में विरोध होने से आहारकमागंणा में भी कार्मणकाययोग नहीं पाया जाता है ।
पूर्वोक्त के अतिरिक्त जिन मार्गणाओं में कार्मणकाययोग यथासंभव पाया जाता है, उनके नाम इस प्रकार हैं- कषायचतुष्क, लेश्याषट्क, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, मति, श्रुत, अवधिज्ञान, मति- अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि ।
इस प्रकार से कार्मणकाययोग की संभवता के बारे में विचार करने के पश्चात् अब काययोग के अन्य भेदों के बारे में विचार करते हैं
'मणणाणविभंगे मीसं उरलंपि न संभवइ' - अर्थात् ज्ञानमार्गणा के मनपर्यायज्ञान और विभंगज्ञान इन दो भेदों में कार्मणकाययोग के साथ औदारिकमिश्र काययोग भी नहीं होता है । क्योंकि औदारिकमिश्र मनुष्य, तिर्यंचों को अपर्याप्त अवस्था में पाया जाता है । परन्तु वहाँ ये दोनों ज्ञान नहीं होते हैं और मनपर्यायज्ञान द्रव्य एवं भाव संयमी साधु को ही होता है और वह भी पर्याप्त
अवस्था में ।
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