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पंचसंग्रह (१) मनोयोग और वचनयोग के भेदों को बतलाने के पश्चात् अब काययोग के सात भेदों का निर्देश करते हैं
सर्वप्रथम कार्मणकाययोग के बारे में बतलाते हैं कि 'अंतरगइ केवलिएसु कम्म' अर्थात् अपान्तरालगति (विग्रहगति) और केवलिसमुद्घात-अवस्था के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में मात्र कार्मणयोग होता है, लेकिन इसके अतिरिक्त अन्यत्र विवक्षा से समझना चाहिए कि यदि सत्ता रूप में विवक्षा की जाये तो होता है और योग रूप में विवक्षा की जाये तो नहीं होता है। क्योंकि पूर्वोक्त के सिवाय शेष समयों में औदारिकमिश्र या औदारिक आदि शुद्ध काययोग होते हैं, लेकिन मात्र कार्मणकाययोग नहीं होता है।
उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि वैसे तो समस्त संसारी जीव सदैव कार्मणशरीर से संयुक्त हैं। चाहे वर्तमान भव हो या भवान्तर हो अथवा इस भव को छोड़कर भवान्तर में जाने का प्रसंग हो, सर्वत्र कार्मणकाययोग साथ में रहेगा ही और जब इसका अंत हो जायेगा तब जीव के संसार का भी अंत हो जाता है। लेकिन सिर्फ कार्मण शरीर ही हो, अन्य शरीरों के साथ मिला-जुला होकर संसारी जीवों में न पाया जाये तो इसको स्पष्ट करते हुए ग्रंथकार आचार्य ने निर्देश किया है—'अन्तरगई केवलिएसु कम्म' ।
अर्थात् मात्र कार्मणयोग संसारी जीवों में तभी पाया जायेगा जब वे भव से भवान्तर का शरीर ग्रहण करने के लिए गति करते हैं और उत्पत्ति के प्रथम समय तक तथा केवली भगवान् यद्यपि संसार के कारणभूत कर्मों का क्षय कर चुके हैं और अवशिष्ट कर्मों का क्षय होने पर सदा के लिए संसार का अंत कर देंगे, मुक्त हो जायेंगे। किन्तु आयुस्थिति की अल्पता एवं अन्य कर्मों की कालमर्यादा अधिक होने पर आयुस्थिति के बराबर उन शेष कर्मों की कालमर्यादा करने के लिए जब अष्ट सामयिक केवलिसमुद्घात-प्रक्रिया करते हैं तब उस प्रक्रिया के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में भी मात्र कार्मणयोग पाया जाता है। इन दोनों स्थितियों के सिवाय शेष
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