________________
पंचसंग्रह (१)
'पज्जत्त चउपणिदिसु सचक्खु' अर्थात् पर्याप्त चतुरिन्द्रिय और पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय में चक्षुदर्शन सहित पूर्वक्ति तीन मिलाकर चार उपयोग होते है । यानी चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा मति- अज्ञान, श्र ुत-अज्ञान यह चार उपयोग होते हैं । इन चार उपयोगों के होने का कारण यह है कि इनके पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है तथा आवरण की सघनता से चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन के सिवाय अन्य दर्शनोपयोग तथा मति- अज्ञान और श्रृत अज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञानोपयोग संभव नहीं हैं । इसी कारण पर्याप्त चतुरिन्द्रिय और पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थानों में चक्षुदर्जन सहित पूर्वोक्त मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान और अचक्षुदर्शन, कुल चार उपयोग माने जाते हैं ।
७६
अब शेष रहा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान | इसमें सभी बारह उपयोग होते हैं - सन्नीसु बारसवि । यह कथन सामान्य की अपेक्षा समझना चाहिये, लेकिन विशेषापेक्षा विचार किया जाये तो देव, नारक और तिर्यंच, इन तीन गतियों में तो केवलज्ञान, केवलदर्शन और मनपर्यायज्ञान के सिवाय शेष नौ उपयोग होते हैं, मात्र मनुष्यगति में ही बारह उपयोग संभव हैं ।' केवलज्ञान और केवलदर्शन उपयोग की स्थिति समय मात्र की और शेष छादुमस्थिक दस उपयोगों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मानी गई है ।
कुमति कुतज्ञानद्वयमिति सप्त केचिद् वदन्ति अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियसंज्ञिजीवेषु भवन्तीति विशेष व्याख्येयम् । - दि. पंचसंग्रह ४ / २३ की टीका १ इनमें से छद्मस्थ मनुष्यों के केवलद्विक के सिवाय शेष दस और केवली भगवान के सिर्फ केवलज्ञान और केवलदर्शन यह दो उपयोग होते हैं । २ छाद्मस्थिक उपयोगों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मानने के संबंध में श्वेताम्बर और दिगम्बर मत समानतंत्रीय हैं । संबंधित उल्लेख इस प्रकार है(क) उपयोगस्थितिकालोऽन्तर्मुहूर्त परिमाणः प्रकर्षाद् भवति ।
-तत्त्वार्थ भाष्य २ / ८ की टीका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org