Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ८
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अपर्याप्त की अपेक्षा उसमें उपयोगों का विचार किया जाये तो मनपर्यायज्ञान, केवलज्ञान, चक्षुदर्शन और केवलदर्शन इन चार उपयोगों के सिवाय शेष आठ उपयोग माने जायेंगे । मनपर्यायज्ञान आदि चार उपयोग न मानने का कारण यह है कि मनपर्यायज्ञान संयमी जीवों को होता है, किन्तु अपर्याप्त अवस्था में संयम संभव नहीं है तथा चक्षुदर्शन चक्षुरिन्द्रिय वालों को होता है और चक्षुरिन्द्रिय के व्यापार की अपेक्षा रखता है, लेकिन अपर्याप्त अवस्था में चक्षुरिन्द्रिय का व्यापार नहीं होता है । केवलज्ञान और केवलदर्शन यह दो उपयोग कर्मक्षयजन्य हैं, किन्तु अपर्याप्त दशा में कर्मक्षय होना संभव नहीं है । इसी कारण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के अपर्याप्त अवस्था में मनपर्यायज्ञान, केवलज्ञान, चक्षुदर्शन और केवलदर्शन यह चार उपयोग नहीं होते हैं । किन्तु आठ उपयोग इसलिए माने जायेंगे कि तीर्थंकर तथा सम्यदृष्टि देव, नारक आदि को उत्पत्ति के क्षण से ही मति, श्रत अवधि ज्ञान और अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन ये पाँच उपयोग होते हैं तथा मिथ्यादृष्टि देव, नारक को जन्म समय से ही मति श्र त अवधि- अज्ञान और दो दर्शन होते हैं । दोनों प्रकार के जीवों में (सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि में) दो दर्शन समान हैं । अतः उनकी पुनरावृत्ति न करने से आठ उपयोग माने जाते हैं ।"
१ दिगम्बर कार्मग्रथकों ने अपर्याप्त दशा में सात उपयोग माने हैं । विभंगज्ञान को ग्रहण नही किया है --
वरि विभंगं णाणं पंचिदिय सण्णिपुण्णेव ।
- गोम्मटसार जीवकांड, गाथा ३०० लेकिन यह सात उपयोग मानने का मत भी सर्वसम्मत नहीं, किन्हीं किन्हीं आचार्यों ने माना हैपञ्चेन्द्रियसंज्ञ्यपर्याप्तकजीवेषु मतिश्रुतावधिद्विकं, मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानं, अवधिद्विकं अवधिज्ञानदर्शनद्वयं चकारात् अचक्षु दर्शनं इति पंच उपयोगाः ।
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