Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२
मणनाणविभंगेसु-मनपर्यायज्ञान और विभंगज्ञान मार्गणा में, मीसं-मिश्र, उरलं पि- औदारिक भी, नारयसुरेसु-नरक और देवगति में, केवल - केवलद्विक, थावर-स्थावर, विगले-विकलेन्द्रियों में, वेउविदुर्ग- वैक्रियद्विक, न--नहीं, संभवइ -होते हैं।। ___ आहारदुर्ग-आहारद्विक, जायइ-- होते हैं, चोहसपुस्विस्स-चौदह पूर्वी को, इइ -- इस, विसेसणओ--विशेषण से, मणुयगइ - मनुष्यगति, पंचेन्दियमाइएसु -पंचेन्द्रिय आदि मार्गणाओं में, समईए-अपनी बुद्धि से, जोएज्जा-योजना कर लेना चाहिये।
गाथार्थ-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और स्थावरों में मनोयोग नहीं होता है । केवलद्विक मार्गणा में मनोयोग के दो भेद नहीं होते हैं । एकेन्द्रिय और स्थावरों में वचनयोग नहीं होता और विकलेन्द्रियों में असत्यामृषा वचनयोग ही होता है ।।
केवलद्विक मार्गणा में सत्य और असत्यामृषा यह दो वचनयोग होते हैं । विग्रहगति और केवलिसमुद्घात में कार्मणयोग होता है, अन्यत्र वह विवक्षा से जानना चाहिए।
मनपर्याय और विभंगज्ञान मार्गणा में औदारिक मिश्रयोग संभव नहीं है। नरक देव गति में औदारिक काययोग व केवलद्विक, स्थावर और विकलेन्द्रियों में वैक्रियद्विक योग नहीं होते हैं।
आहारकद्विक चौदह पूर्वधारी को ही होते हैं, अतः इस विशेषण से मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय आदि मार्गणाओं में जहाँ चौदह पूर्वधर संभव हों, वहाँ स्वबुद्धि से उनकी योजना कर लेना चाहिए । विशेषार्थ-ग्रंथकार आचार्य ने इन चार गाथाओं में विधिनिषेध प्ररूपण शैली के द्वारा मार्गणाओं में योगों की योजना की है और मार्गणाओं के नाम एवं अवान्तर भेद आदि आगे बतलाए हैं। लेकिन सुविधा की दृष्टि से यहाँ उनके भेद आदि को जानना उपयोगी होने १ योगोपयोगमार्गणा अधिकार गा. २१
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