Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२
८७ वीर्यशक्ति के जिस परिस्पन्दन से---आत्मिक प्रदेशों की हलचल से जीव की भोजन, गमन आदि क्रियायें होती हैं, उसे योग कहते हैं। योग का विस्तार से पूर्व में विचार किया जा चुका है, तदनुसार यहाँ समझ लेना चाहिए । योग के सामान्य से तीन भेद हैं-१. मनोयोग, २. वचनयोग, ३. काययोग और उनके क्रमश चार, चार और सात अवान्तर भेद होने से योगों के पन्द्रह भेद होते हैं।
५. वेदमार्गणा -- 'वेद्यते इति वेदः'- जिसके द्वारा इन्द्रियजन्य, संयोगजन्य सुख का वेदन-अनुभव किया जाये, उसे वेद कहते हैं। वेद अभिलाषा रूप है। उसके तीन भेद हैं-१. स्त्रीवेद, २. पुरुषवेद, ३. नपुसकवेद ।
६. कषायमार्गणा- जिसमें प्राणी परस्पर दण्डित-दुःखी हों, उसे कष् यानी संसार कहते हैं । अतः जिसके द्वारा आत्मायें संसार को प्राप्त करें, उसमें भ्रमण करें, दुःखी हों, उसे कषाय कहते हैं। कषाय के चार भेद हैं--१. क्रोध, २. मान, ३. माया और ४. लोभ ।'
७. ज्ञानमार्गणा- जिसके द्वारा जाना जाये उसे ज्ञान कहते हैं। अर्थात् जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक-भूत, भविष्य और वर्तमान काल सम्बन्धी समस्त द्रव्य और उनके गुणों व पर्यायों को जाने वह ज्ञान है । ज्ञान के ग्रहण से उसके प्रतिपक्षी अज्ञान का भी ग्रहण कर लेना चाहिए । अतः पांच ज्ञान और तीन अज्ञान, इस प्रकार इसके आठ भेद हैं। जिनके नाम हैं--१. मतिज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनपर्यायज्ञान, ५. केवलज्ञान, ६. मति-अज्ञान, ७. श्रुत-अज्ञान, ८. विभंगज्ञान ।
८. संयममार्गणा-संयम अर्थात् त्याग, सम्यक् प्रकार से विराम
१ स्त्रीपुन्नपुसकवेदाः। २ क्रोधमानमायालोभाः ।
-~-तत्त्वार्थसूत्र ८/६ ----तत्त्वार्थसूत्र ८/१०
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