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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२
इस प्रकार मार्गणाओं के मूल चौदह भेद और उनके अवान्तर भेदों की कुल संख्या बासठ जानना चाहिये - गति ४. इन्द्रिय ५. काय ६. योग ३. वेद ३. कषाय ४. ज्ञान ८. संयम ७. दर्शन ४. लेश्या ६. भव्य २. सम्यक्त्व ६. संज्ञी २. आहार २ । इन सब भेदों की संख्या मिलाने पर मार्गणाओं के उत्तर भेद बासठ होते हैं। मार्गणाओं में योग
अब इनमें से कतिपय मार्गणाओं में विधिमुखेन और कुछ एक में प्रतिषेधमुखेन योगों का निर्देश करते हैं ।
योगों के मूल तीन भेद हैं—मनोयोग, वचनयोग और काययोग । इनके क्रमशः चार, चार और सात अवान्तर भेदों के लक्षण सहित नाम पूर्व में बतलाये जा चुके हैं।
उनमें से मनोयोग के चार भेद कौन-कौनसी मार्गणाओं में संभव हैं और किनमें सम्भव नहीं हैं, इन दोनों को स्पष्ट करने के लिये गाथा में पद दिया है --- 'इगिविगलथावरेसु न मणो' अर्थात् इन्द्रियमार्गणा के पांच भेदों में से एकेन्द्रिय, विकलत्रिक-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा कायमार्गणा के स्थावर रूप पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति कायरूप पांच भेदों में मनोयोग नहीं होता है । अर्थात् इनमें मूलतः मनोयोग न होने से उसके सत्य, असत्य आदि चारों भेदों में से एक भी भेद नहीं पाया जाता है तथा उपलक्षण से समकक्ष असंज्ञी और अनाहारक इन दो मार्गणाओं में भी मनोयोग सर्वथा नहीं पाया जाता है ।
सारांश यह है कि इन्द्रियमार्गणा के एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रय तक के चार भेदों, कायमार्गणा के पृथ्वी काय आदि वनस्पतिकाय पर्यन्त के पांच भेदों, संज्ञीमार्गणा के भेद असंज्ञी तथा आहारमार्गणा के भेद अनाहारक, इन ग्यारह मार्गणाओं में मनोयोग के चार भेदों में से एक भी नहीं होता है।
विधिमुखेन उक्त कथन का यह आशय फलित होगा कि मार्गणाओं के बासठ अवान्तर भेदों में से ग्यारह में तो मनोयोग मूलतः ही
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