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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२
८५ पर भी समस्त जीव ज्ञान-दर्शन आदि आत्मगुणों और किसी न किसी अवस्था-पर्याय में विद्यमान हैं। यद्यपि मुक्त जीव वर्तमान में पर्यायातीत हो चुके हैं, उनमें पर्याय-अवस्थाजन्य भेद नहीं है । इन्द्रिय, वेद आदि भी नहीं रहे हैं, लेकिन भूतपूर्वप्रज्ञापननय की अपेक्षा पर्याय का आरोप करके उनको भी पर्यायवान मान लिया जाता है ।
प्रस्तुत में संसारी जीवों का प्रसंग है। इसीलिये उनके अनुमार्गण और उनकी समस्त पर्यायों एवं उनमें विद्यमान भावों का समावेश करने के लिये मार्गणा के निम्नलिखित चौदह भेद किये गये हैं
१. गति, २. इन्द्रिय, ३. काय, ४. योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७. ज्ञान, ८. संयम, ६. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्य, १२. सम्यक्त्व, १३. संज्ञी और १४. आहारक ।'
ये मार्गणाओं के मूल-मुख्य चौदह भेद हैं। जिनमें समस्त जीवों का समावेश हो जाता है। लेकिन संसारी जीवों में गति, इन्द्रिय, काय, ज्ञान आदि जन्य अनेक प्रकार की विभिन्नतायें देखी जाती हैं। इसलिये उनकी अनेक प्रकार की विभिन्नताओं का समावेश करने
और उनका बोध कराने के लिये प्रत्येक मार्गणा के अवान्तर भेद कर लिये जाते हैं। उन भेदों के नाम सहित प्रत्येक मार्गणा का लक्षण इस प्रकार है -
१-गतिमार्गणा-कर्मप्रधान जीव (संसारी जीव) के द्वारा जो प्राप्त की जाती है, अर्थात् नरक, देव आदि रूप में आत्मा का जो परिणाम, उसे गति कहते हैं । अथवा गति नामकर्म के उदय से होने
१ गोम्मटसार जीवकांड में भी मार्गणा के चौदह भेदों के नाम इसी प्रकार
से बतलाये हैंगइइंदियेसु काये जोगे वेदे कसायणाणे य ।
संजमदंसणलेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥१४३ २ तत्र गम्यते तथाविधकर्मसचिवैर्जीवैः प्राप्यते इति गतिः । नारकत्वादिपर्याय परिणतिः ।
-पंचसंग्रह मलयगि रि.टीका पृ. १०
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