Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ८
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तो वह सामान्य मात्र को विषय करने वाला होने से अल्पविषय सिद्ध होगा तब उसकी अनन्त विषयता घट नहीं सकेगी । केवलदर्शन और केवलज्ञान सम्बन्धी आवरण एक होने पर भी कार्य और उपाधि भेद की अपेक्षा से उसका भेद समझना चाहिए, जिससे एक उपयोग व्यक्ति में ज्ञानत्व - दर्शनत्व दो धर्म अलग-अलग कहलाते हैं । परन्तु दोनों अलग-अलग नहीं हैं। दोनों शब्दपर्याय एकार्थवाची हैं ।
केवली में उपयोग विषयक उक्त तीनों मंतव्यों में से कार्मग्रंथिकों ने सिद्धान्तमत को स्वीकार करके क्रमभावी माना है
'संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु द्वादशोपयोगा भवन्ति, अपिशब्दाद्विद्यमानतया नतूपयोगेन, उपयोगस्त्वेकस्यैक एव भवति, यत उक्तमागमे
'सव्वस्स केवलिस्सवि जुगवं दो नत्थि उवओगा इति वचनात् । "
इस प्रकार से जीवस्थानों में उपयोगों का कथन समझना चाहिये ।" सरलता से समझने के लिए जीवस्थानों में प्राप्त योगों और उपयोगों के प्रारूप इस प्रकार हैं
क्र० सं०
१
२
३
४
जीवस्थान नाम
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अप०
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त १ औदारिक काययोग
बादर एकेन्द्रिय अप० २ कार्मण, औदारिकमिश्र काययोग पर्याप्त ३ औदारिक, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र
"
योग संख्या व नाम
२ कार्मण, औदारिक मिश्र काययोग
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१ पंचसंग्रह स्वोपज्ञवृत्ति, पृ. १०
२ दिगम्बर कार्मग्र थिकों द्वारा किये गये जीवस्थानों में उपयोग के निर्देश
को परिशिष्ट में देखिये ।
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