Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (१)
करके औदारिक, इस तरह तीन काययोग जानना चाहिये । औदारिक को ग्रहण करने का कारण यह है कि सभी को नहीं किन्तु कुछ एक वायुकायिक जीवों को वैक्रियद्विक काययोग होते हैं । "
उक्त कथन का सारांश और विचारणीय बिन्दु इस प्रकार हैं
अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि सातों प्रकार के अपर्याप्त जीव जब शरीरपर्याप्ति पूर्ण कर लेते हैं तब औदारिक शरीर वालों के औदारिककाययोग होता है, औदारिकमिश्रकाययोग नहीं और वैक्रिय शरीर वालों के वैक्रियकाययोग किन्तु वैक्रियमिश्र काययोग नहीं । इस मतान्तर के मानने वाले शीलांकाचार्य आदि प्रमुख आचार्य हैं। उनका मंतव्य है कि शरीरपर्याप्ति के पूर्ण हो जाने के बाद भी शेष पर्याप्तियों के पूर्ण न होने से अपर्याप्त माने जाने वाले जीवों में शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो जाने से शरीर पूर्ण हो गया और उस स्थिति में औदारिक शरीर वालों के औदारिककाययोग और वैक्रिय शरीर
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पहला ( औदारिक) शरीर तिर्यंच, मनुष्यों के और दूसरा (वैक्रिय) शरीर देव, नारकों के होता है तथा किन्हीं लब्धि वाले वायुकायिकों व संज्ञी तिर्यंच, मनुष्यों को भी होता है ।
(ख) तत्वार्थ भाष्यवृत्ति में भी वायुकायिक जीवों के लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर होने का संकेत किया है- 'वायोश्च वैक्रियं लब्धिप्रत्ययमेव' इत्यादि । - तत्त्वार्थ. २/४८ (ग) दिगम्बर साहित्य में भी वायुकायिक, तेजस्कायिक जीवों को वैक्रिय शरीर का स्वामी कहा है
बादर तेऊवाऊ पंचिदियपुण्णगा विगुव्वंति ।
- गोम्मटसार जीवकांड गाथा २३२ बादर तेजस्कायिक और वायुकायिक तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और भोगभूमिज तिर्यंच, मनुष्य भी विक्रिया करते हैं ।
१ (क) तिन्हं ताव रासीणं वेउव्वियलद्धी चेव नत्थि । बायरपज्जत्ताणंपि
संखेज्जइ भागस्सत्ति ।
- प्रज्ञापनाचूर्णि
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