Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
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क्योंकि असंख्यात के असंख्यात भेद होने से असंख्यात समयप्रमाण अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्यात भेद होते हैं । "
उत्पत्ति के प्रथम समय में आहारपर्याप्ति के पूर्ण होने के बारे में जिज्ञासु का प्रश्न है कि
प्रश्न - यह कैसे जाना जाये कि आहारपर्याप्ति उत्पत्ति के प्रथम समय में ही पूर्ण होती है ?
उत्तर - आहारपर्याप्ति को उत्पत्ति के प्रथम समय में पूर्ण होने के कारण को स्पष्ट करते हुए प्रज्ञापनासूत्र में बताया है कि
'आहारपज्जत्तिए अपज्जत्ते णं भंते ! किमाहारए अणाहारए ?'
हे भगवन् ! आहारपर्याप्ति द्वारा अपर्याप्त क्या आहारी होता है या अनाहारी होता है ?
इसके उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर ने गौतमस्वामी को
बताया
'गोयमा ! नो आहारए अनाहारए !'
हे गौतम! आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव आहारी नहीं होते हैं, परन्तु अनाहारी होते हैं ।
इसलिए आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त
विग्रहगति में ही सम्भव
औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर में पर्याप्तियाँ होती हैं । औदारिक शरीर वाला जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूर्ण करता है और उसके बाद अन्तर्मुहूर्त में दूसरी और उसके बाद तीसरी, इस प्रकार चौथी, पांचवीं, छठी, प्रत्येक क्रमशः अन्तर्मुहूर्त - अन्तर्मुहूर्त के बाद पूर्ण करता है ।
वैक्रिय, आहारक शरीर वाले जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूरी कर लेते हैं और उसके बाद अन्तर्मुहूर्त में दूसरी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं और उसके बाद तीसरी, चौथी, पांचवीं और छठी पर्याप्ति क्रमशः एक-एक समय में पूरी करते हैं । किन्तु देव पांचवीं और छठी, इन दोनों पर्याप्तियों को अनुक्रम से पूर्ण न कर एक साथ एक समय में ही पूरी कर लेते हैं ।
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