Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह वे जीव असंज्ञी पंचेन्द्रिय हैं। ये भी पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं। इनके भेद क्रमशः असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवस्थान हैं।
१३-१४ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त-जिनको पांचों इन्द्रिय और संज्ञा हो, वे संज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाते हैं। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद क्रमशः संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवस्थान हैं। __ इस प्रकार से जीवस्थानों के भेद बतलाने के पश्चात अब उनमें योगों का निर्देश करते हैं। बोवस्थानों में योग
विगलासन्निपज्जत्तएसु-अर्थात् पर्याप्त विकलेन्द्रियों-द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों में तथा पर्याप्त असंज्ञी पंचेद्रियों में काययोग और वचनयोग, इस तरह दो योग होते हैं—'लब्भंति कायवइयोगा'। सव्वेवि सन्निपज्जत्तएसु-अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में मनोयोग आदि तीनों योग के सभी उत्तर भेद-पन्द्रह योग होते हैं तथा इनसे शेष रहे पर्याप्त-अपर्याप्त सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय तथा अपर्याप्त द्वीन्द्रिय. त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय, इन नौ जीवस्थानों में सिर्फ काययोग होता है-'सेसेसु काओगो।'
जीवस्थानों में योगों विषयक इस सामान्य कथन को अब विशेषता के साथ स्पष्ट करते ह ----
विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में काययोग और वचनयोग यह दो योग होते हैं। काययोग तो इनमें औदारिकशरीररूप और 'विगलेसु असच्चमोसेव''-विकलेन्द्रियों में असत्यामृषारूप ही वचनयोग होता है इस कथन के अनुसार असत्यामृषाभाषा-व्यवहारभाषारूप वचनयोग
१ गाथा ६
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