Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा : गाथा ६ के क्रम में जिनको पहली स्पर्शनरूप एक इन्द्रिय होती है, ऐसे पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति काय के जीव एकेन्द्रिय कहलाते हैं । सूक्ष्म और बादर नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर के कारण ये प्रत्येक सूक्ष्म और बादर के भेद से दो-दो प्रकार के हैं तथा ये दो-दो भेद भी पर्याप्त और अपर्याप्त नामकर्म के उदय वाले होने से पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं। इनके वर्ग क्रमशः १. सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, २. सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, ३. बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और ४. बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त कहलाते हैं।
एकेन्द्रिय जीवों के बादर और सूक्ष्म यह दो भेद मानने का कारण यह है कि चाहे कितने भी शरीरों के एकत्रित हो जाने पर भी जो चर्म-चक्षुओं से न दिखें वे सूक्ष्म और जिनके अनेक शरीरों का समूह भी दिख सकता हो, वे बादर कहलाते हैं।
५.६ द्वीन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त-स्पर्शन और रसनरूप दो इन्द्रियाँ जिनको हों, ऐसे शंख, सीप, चन्दनक आदि जीव द्वीन्द्रिय कहलाते ह । ये भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। इन दोनों के वर्गों को क्रमशः द्वीन्द्रिय पर्याप्त और द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवस्थान कहते हैं।
७-८ त्रीन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त-स्पशन, रसन और घ्राण (नाक), ये तीन इन्द्रियाँ जिनको हों, ऐसे जू, खटमल, इन्द्रगोप, चींटी, दीमक आदि जीव त्रीन्द्रिय कहलाते हैं। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद क्रमशः त्रीन्द्रिय पर्याप्त और त्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीवस्थान कहलाते हैं।
६-१० चतुरिन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त-स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्ष, ये चार इन्द्रियाँ जिनको हों, ऐसे भ्रमर, मक्खी, मच्छर आदि जीव चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद क्रमशः चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवस्थान हैं।
११-१२ असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त-स्पर्शन आदि श्रोत्र पर्यन्त जिनको पांचों इन्द्रियाँ हों, लेकिन संज्ञा-भूत, भावी और वर्त
मान पदार्थों के स्वभाव के विचार करने की योग्यता से विहीन हों Jain Education International
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