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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ७ कार्मण और औदारिकमिश्र काययोग और देव, नारकों की अपेक्षा कार्मण और वैक्रियमिश्र काययोग होंगे। मनुष्य और तिर्यचों में औदारिकमित्र काययोग और देव, नारकों में वैक्रिय मिश्र काययोग मानने का कारण यह है कि इनमें जन्मत: क्रमशः औदारिक
और वैक्रिय शरीर होते हैं । अतः उनकी अपर्याप्त अवस्था में औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र शरीर माने जायेंगे और कार्मण काययोग मानने का कारण पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है । इस प्रकार दोनों में कार्मण काययोग समान होने से अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में तीन योग माने जाते हैं।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के औदारिककाययोग होता है। क्योंकि जैसे इनमें मन और वचन की लब्धि नहीं है, वैसे ही वैक्रिय आदि लब्धि भी नहीं है। इसीलिये उनमें वैक्रियकाययोग आदि सम्भव नहीं है तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव तिर्यंचगति वाले हैं और तिर्यंचगति में औदारिक शरीर होता है। इसी कारण इनमें औदारिककाययोग माना गया है।
इस प्रकार सात अपर्याप्त, पांच पर्याप्त संबंधी जीवस्यानों में समग्र रूप से तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में आंशिक रूप से योगों का विचार करने के पश्चात् अवशिष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में योगों का प्रतिपादन करते हैं।
'पज्जत्ते ओरालो ...' इत्यादि अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में तथा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में औदारिक, वैक्रिय और वैक्रियमिश्र काययोग होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार
पूर्व गाथा में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के भेद मनुष्यों में केवलिसमुद्घात के समय औदारिकमिश्र, कार्मण तथा वैक्रिय लब्धिसंपन्न मनुष्यों तथा तिर्यंचों को वैक्रियलब्धिप्रयोग के समय वैक्रियमिश्रकाययोग का निर्देश किया था, लेकिन शेष समय में प्राप्त योग को नहीं
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