Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ७
लद्धीए करणेहि य ओरालियमीसगो अपज्जत्ते । पज्जत्ते ओरालो वेउव्विय मीसगो वा वि ॥७॥ शब्दार्थ-लद्धीए-लब्धि से, करणेहि-करण से, ओरालियमीसगोऔदारिकमिश्र, अपज्जत-अपर्याप्त में, पज्जत्त-पर्याप्त में, ओरालोऔदारिक, वेउदिवय-वैक्रिय, मीसगो-वैक्रियमिश्र, वा-अथवा, वि-भी।
गाथार्थ – लब्धि और करण से अपर्याप्त जीवों में औदारिकमिश्रकाययोग होता है तथा पर्याप्त अवस्था में औदारिक, वैक्रिय अथवा वैक्रियमिश्रकाययोग होता है। विशेषार्थ ---पूर्वगाथा में. 'सेसेसु काओगो' पद से जिन शेष रहे जीवस्थानों में काययोग का निर्देश किया है, उनके नाम इस प्रकार
१-४. पर्याप्त-अपर्याप्त सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय. ५. अपर्याप्त-द्वीन्द्रिय, ६. त्रीन्द्रिय, ७. चतुरिन्द्रिय, ८. असंज्ञी पंचेन्द्रिय और ६. संज्ञी पंचेन्द्रिय । इनमें पर्याप्त सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय, इन दो को छोड़कर शेष सात अपर्याप्त अवस्थाभावी जीवस्थान हैं और यदि नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव रूप चार गतियों की अपेक्षा इनका विभाजन किया जाये तो अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय को छोड़कर शेष आठ जीवस्थान तिर्यंचगति में होते हैं
‘णवस चदुक्के इक्के जोगा इक्को य दोण्णि पण्णरसा।'
-पंचसंग्रह शतक प्राकृतवृत्ति गा. ६ लेकिन भाष्यगाथाकार ने चौदह योगों का उल्लेख किया है
सण्णी संपुण्णेसु चउदस जोया मुणेयव्वा ॥४३।। जिसका स्पष्टीकरण वृत्ति में इस प्रकार हैमनुष्य-तिर्यगपेक्षया संज्ञिसंपूर्णेसु पर्याप्तेषु वैक्रियकमिश्रं विनां चतुर्दश योगाः ज्ञातव्याः ।
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