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योगोपयोगमार्गणा : गाथा ६
होगा । इसका कारण यह है कि ये सभी जीव तिर्यंच हैं और तिर्यंच जीवों के शरीर औदारिककाययोगनिष्पन्न होते हैं, इसलिए इनके औदारिककाययोग तो अवश्य होगा ही और असत्यामृषावचनयोग इसलिए माना है कि द्वीन्द्रिय आदि जीवों के स्पर्शन इन्द्रिय के अनन्तर रसना आदि श्रोत्र पर्यन्त एक-एक इन्द्रिय की वृद्धि होती जाती है। इस इन्द्रिय वृद्धि के क्रम में रसनेन्द्रिय (जीभ) प्रथम है और जीभ शब्दोच्चारण की साधन है। अतः जिन जीवों के रसनेन्द्रिय होगी वे, किसी न किसी शब्द-ध्वनि का उच्चारण अवश्य करेंगे ही। किन्तु इन द्वीन्द्रिय आदि जीवों का भाषाप्रयोग न तो सत्यरूप होता है और न मृषारूप, किन्तु असत्यामषा-व्यवहारभाषारूप होता है । ये सभी असंज्ञी होते हैं, जिससे इनमें मनोयोग मूलतः सम्भव नहीं है। इसलिए पर्याप्त विकलत्रिक और असंज्ञी पंचेद्रिय, इन चार जीवस्थानों में औदारिका काययोग और असत्यामषा-व्यवहारभाषारूप वचनयोग, यह दो योग माने जाते हैं।
पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में सभी योग पाये जाते हैं। इसका कारण यह है कि आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि सभी छहों पर्याप्तियों से युक्त होने से इनकी मन, वचन, काय योग सम्बन्धी योग्यता विशिष्ट प्रकार की होती है। इसलिए उनमें चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और सातों काययोग हैं। इस प्रकार उनमें सभी पन्द्रह योग माने जाते हैं।'
योगों के पन्द्रह भेदों में यद्यपि कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमित्र ये तीन योग अपर्याप्त-अवस्याभावी हैं। लेकिन इनको भी संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तकों में मानने का कारण यह है कि
१ अपेक्षाविशेष से सामान्य संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में योगों का विचार किया जाये तो अपर्याप्त अवस्थाभावी कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रिय मिश्र, इन तीनों योगों के सिवाय बारह योग भी माने जा सकेंगे।
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