________________
पंचसंग्रह (१) और अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान चतुर्गति के जीवों में पाया जाता है।
पूर्व में अपर्याप्त और पर्याप्त के विचार-प्रसंग में अपर्याप्त के दो भेद बतलाये हैं—(१) लब्धि-अपर्याप्त और (२) करण-अपर्याप्त । मनुष्य और तिथंच तो लब्धि और करण दोनों प्रकार के अपर्याप्त सम्भव हैं किन्तु देव और नारक करण-अपर्याप्त होते हैं, लब्धि-अपर्याप्त नहीं होते हैं।
इस प्रकार से संक्षेप में अवशिष्ट नौ जीवस्थानों के बारे में निर्देश करने के बाद अब उनमें प्राप्त काययोग के भेदों को बतलाते हैं
'लद्धीए करणेहि ... .. अपज्जत्ते' अर्थात् लब्धि और करण से अपर्याप्त ऐसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय, ये छहों जीवस्थान औदारिक शरीर वाले हैं। अत: इनकी अपर्याप्त दशा में 'ओरालियमीसगो'- औदारिकमिश्रकाययोग तथा अपान्तरालगति (विग्रहगति) और उत्पत्ति के प्रथम समय में कार्मण काययोग होता है। इन छह जीवस्थानों की अपर्याप्त दशा में कार्मण और औदारिकमिश्रकाययोग मानने का कारण यह है कि सभी प्रकार के जीवों को अपान्तरालगति (विग्रहगति) में तथा जन्म ग्रहण करने के प्रथम समय में कार्मणयोग ही होता है, क्योंकि उस समय औदारिक आदि स्थूल शरीर का अभाव होने के कारण योगप्रवृत्ति केवल कार्मणशरीर से होती है और उत्पत्ति के द्वितीय समय से लेकर स्वयोग्य पर्याप्तियों के पूर्ण बन जाने तक मिश्रकाययोग सम्भव है । क्योंकि उस अवस्था में कार्मण और औदारिक आदि स्थूल शरीरों के संयोग से योगप्रवृत्ति होती है। इसीलिये अपर्याप्त अवस्था में कार्मणकाययोग के बाद औदारिकमिश्रकाययोग माना गया है। ___ अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवस्थान में मनुष्य, तिर्यंच, देव, नारक जीव गभित हैं, इसलिये सामान्य से इसमें कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र ये तीन योग होंगे। लेकिन मनुष्य और तिर्यंचों की अपेक्षा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org