Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
योगोपयोगमार्गणा : गाथा ६
५९
लाते हैं और जिन्होंने शरीर और इन्द्रियादि स्वयोग्य पर्याप्तियाँ अभी पूर्ण नहीं की, किन्तु अवश्य पूर्ण करेंगे, उन्हें करण-अपर्याप्त कहते हैं। ___लब्धि-पर्याप्त जीव वे कहलाते हैं, जिनको पर्याप्तनामकर्म का उदय हो और अभी स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं की हैं, लेकिन पूर्ण अवश्य करेंगे। करण-पर्याप्त उन्हें कहते हैं, जिन्होंने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं।
उक्त अपर्याप्त और पर्याप्त के दो-दो भेदों में करण-अपर्याप्त और लब्धि-अपर्याप्त का अर्थ लगभग एक जैसा प्रतीत होता है, जिससे यह शंका हो सकती है कि इन दोनों में क्या अन्तर है ?
उस विषय में यह समझना चाहिए कि कर्म दो प्रकार के हैं-१. पर्याप्तनामकर्म और २. अपर्याप्तनामकर्म । जिस कर्म के उदय से स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण होती हैं, उसे पर्याप्तनामकर्म और जिस कर्म के उदय से स्वयोग्य पर्याप्तियां पूर्ण न हों, उसे अपर्याप्तनामकर्म कहते हैं । लब्धि यानी शक्ति के द्वारा पर्याप्त, वे लब्धि-पर्याप्त, वे पर्याप्तनामकर्म के उदय वाले जीव हैं और शक्ति से अपर्याप्त, वे लब्धि-अपर्याप्त, वे अपर्याप्तनामकर्म के उदय वाले जीव हैं।
१ लब्धि-अपर्याप्त जीव भी करण-अपर्याप्त होते हैं। क्योंकि यह नियम है
कि लब्धि-अपर्याप्त भी कम से कम आहार, शरीर और इन्द्रिय, इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना नहीं मरते हैं और मरण तभी हो सकता है जब आगामी भव का आयुबन्ध हो गया हो और आयुबन्ध तभी होता है जबकि आहार, शरीर और इन्द्रिय यह तीन पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैंयस्मादागामिभवायुर्बध्वा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः। तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव वध्यत इति ।
-नन्दीसूत्र, मलयगिरिटीका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org