Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा : गाथा ६
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कर मन रूप से परिणत करके उनका अवलम्बन लकर छोड़ना 'मन:पर्याप्ति' है।'
पर्याप्तियों के इन छह भेदों में से एकेन्द्रिय के आदि की चार, विकलत्रिक और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में आदि की पांच और संज्ञी पंचेन्द्रिय में छहों पर्याप्तियाँ होती हैं । २
यद्यपि उत्पत्ति के प्रथम समय से ही सभी जीव अपनी-अपनी योग्य पर्याप्तियों को युगपत् प्रारम्भ करते हैं, लेकिन पूर्ण अनुक्रम से करते हैं। सर्वप्रथम पहली आहारपर्याप्ति पूर्ण करते हैं, उसके बाद शरीरपर्याप्ति, तत्पश्चात् इन्द्रियपर्याप्ति, इस प्रकार अनुक्रम से चौथी, पांचवीं और छठी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं। आहारपर्याप्ति तो उत्पत्ति के प्रथम समय में पूर्ण होती है और शेष पर्याप्तियाँ अनुक्रम से अन्तमुहूर्त काल में पूर्ण होती हैं। किन्तु सभी पर्याप्तियों को पूर्ण करने का काल अन्तमुहूर्त है। ___ यद्यपि आगे-आगे पर्याप्ति के पूर्ण होने में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा कुछ अधिक-अधिक काल लगता है, तथापि वह अन्तमुहूर्त प्रमाण ही है।
१ प्रज्ञापनासूत्रटीका और तत्त्वार्थभाष्यगत पर्याप्तिसम्बन्धी व्याख्या का
सारांश परिशिष्ट में देखिये । २ चत्तारि पंच छप्पि य एगिदिय विगल संनीणं ॥
-बृहत्संग्रहणी ३४६
-गोम्मटसार जीवकांड, गाथा ११८ ३ (क) पज्जत्तीपट्ठवणं जुगवं तु कमेण होदि णिट्ठवणं ।
-गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा ११६ (ख) उत्पत्तिप्रथमसमय एव चैता यथायथं सर्वा अपि युगपन्निष्पादयितुमारभ्यन्ते, क्रमेण च निष्ठामुपयांति ।
-पंचसंग्रह, मलयगिरिटीका, पृ. ८
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