Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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अपने-अपने विषय के ज्ञान स्वतंत्र है, उसे इन्द्रिय कहते हैं ।" स्वतंत्र है; किन्तु अन्य इन्द्रियाँ रूप जिस इन्द्रिय का विषय होता है, है । यही इन्द्रियों की स्वतंत्रता का अर्थ है ।
पंचसंग्रह
और सेवन ( ग्रहण) करने में जो जैसे नेत्र रूप का ज्ञान करने में को ग्रहण नहीं कर सकती हैं । जो वह उसी के द्वारा ग्रहण किया जाता
इन्द्रियों के पांच भेद हैं - १. स्पर्शन, २. रसन, ३. घ्राण, ४. चक्ष और ५. श्रोत्र । ये पाँचों इन्द्रियाँ भी द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की हैं । ४ द्रव्येन्द्रियाँ पौद्गलिक होने से जड़ और भावेन्द्रियाँ चेतनाशक्ति की पर्याय होने से भावरूप हैं । मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मविशुद्धि अथवा उस विशुद्धि से उत्पन्न होने वाले उपयोगात्मक ज्ञान को भावेन्द्रिय कहते हैं। द्रव्येन्द्रियाँ शरीर, अंगोपांग और निर्माण नामकर्म से निर्मित होती हैं ।
इन दोनों द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के दो-दो भेद हैं । निवृत्ति और उपकरण ये द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं । इन्द्रियों की आकार - रचना को निवृत्ति कहते हैं और यह भी बाह्य और अंतरंग के भेद से दो प्रकार
१ स्वेषां विषयः स्वविषयस्तत्र निश्चयेन निर्णयेन रतानीन्द्रियाणि ।
(क) गोयमा ! पंचइन्दिया पण्णत्ता | (ख) तत्त्वार्थ सूत्र २ / १५
१३ (क) प्रज्ञापना. इन्द्रियपद १५
(ख) तत्त्वार्थसूत्र २ /२०
- धवला १/१, १, ४/१३५ - प्रज्ञापना. १५ / २ / १९१
४ (क) गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । तं जहा -दव्विदिया य भाविदिया य ।
- प्रज्ञापना. १५/१
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(ख) तत्त्वार्थ सूत्र २ / १६
५ मदिआवरणखओवसमुत्थविसुद्धी हु तज्जबोहो वा । भाविदियं तु दव्वं देहृदयजदेहचिण्हं तु ।
- गोम्मटसार जीवकांड, गाथा १६४
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