Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
श्र तज्ञान-'श्रवणं श्रुतं'-श्रवण करना-सुनना, यह श्रुत है। वाच्यवाचकभाव के सम्बन्धपूर्वक शब्दसम्बन्धी अर्थ को जानने में हेतुभूत ज्ञानविशेष श्रुतज्ञान कहलाता है।' जलधारण आदि अर्थक्रिया करने में समर्थ अमुक प्रकार की आकृति वाली वस्तु घट शब्द द्वारा वाच्य है-इत्यादि रूप से जिसमें समानपरिणाम प्रधान रूप से है, इस प्रकार शब्द और अर्थ की विचारणा का अनुसरण करके होने वाला इन्द्रिय और मनोनिमित्तक बोध श्रु तज्ञान है ।२ अथवा मतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो, उसे श्र तज्ञान कहते हैं। जैसे कि घट शब्द को सुनकर और आँख से देखने के बाद उसके बनाने वाले, रंग, रूप आदि सम्बन्धी भिन्न-भिन्न विषयों का विचार श्र तज्ञान द्वारा किया जाता है। ___अवधिज्ञान-'अव' शब्द अधः (नीचे) अर्थ का वाचक है। अतः 'अधोधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यते अनेन इत्यवधिः-इन्द्रिय
और मन की सहायता के बिना जिस ज्ञान के द्वारा आत्मा नीचे-नीचे विस्तार वाली वस्तु जान सके, वह अवधिज्ञान है। अथवा अवधि शब्द का अर्थ मर्यादा भी होता है। अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करने की योग्यता वाला है, अरूपी को ग्रहण नहीं करता है, यही
१ श्रवण श्रुतं वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्द संसृष्टार्थग्रहणहेतुरूपलब्धिविशेषः ।
-पंचसंग्रह मलयगिरिटीका, पृ. ६ . २ ......"शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तो ज्ञान विशेषः, श्रुतं च तद्ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् ।
~पंचसंग्रह मलयगिरिटीका, पृ. ६ ३ अत्थादो अत्यंतरमूवलंभंतं भणंति सुदणाणं । आभिणिबोहियपुव्वं ..........
-~-गोम्मटसार जीवकांड, गाथा ३१५ ४. यह कथन वैमानिक देवों की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि वे नीचे-नीचे
अधिक-अधिक जानते हैं, किन्तु ऊपर तो अपने विमान की ध्वजा तक ही जानते हैं।
-सम्पादक
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