Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
प्रधान की विवक्षा से किया गया है । अर्थात् प्रधान होने से पहले साकारोपयोग का और उसके बाद अप्रधानता के कारण अनाकारोपयोग का क्रम उपन्यास किया है' तथा साकारोपयोग के आठ भेदों में प्रथम अज्ञान के भेदों का निर्देश यह बताने के लिए किया है कि सभी जीवों को मिथ्यात्व का सद्भाव रहने से, पहले अज्ञान होता है और उसके बाद सम्यक्त्व प्राप्त होने पर वह ज्ञान कहलाता है । २ दर्शनोपयोग के भेदों में अचक्षुदर्शन का प्रथम प्रतिविधान करने का कारण यह है कि वह सभी जीवों में सामान्यरूप से पाया जाता है और उसके पश्चात् तदावरण कर्मों का क्षय क्षयोपशम होने पर चक्षु दर्शन आदि दर्शनोपयोगों की प्रवृत्ति होती है ।
इस प्रकार से संक्षेप में उपयोग के भेदों का स्वरूप समझना चाहिये ।
जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान के लक्षण
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योग और उपयोग के भेदों का निरूपण करने के पश्चात् अब योगोपयोगमार्गणा के विवेचन की रूपरेखा के अनुसार जीवस्थानों, मार्गणास्थानों और गुणस्थानों में इनका प्रतिविधान करना संगत है । लेकिन इसके पूर्व जीवस्थान आदि तोनों का स्वरूप समझना आवश्यक होने से संक्ष ेप में उनके लक्षण बतलाते हैं । जो इस प्रकार हैं
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प्रधानत्वात् साकारोपयोगः प्रथममुक्तः, तदनन्तरमनाकारोपयोगोऽप्रधानत्वाद् । - पंचसंग्रह स्वोपज्ञवृत्ति, पू. ६ अज्ञानानि पूर्वं भवन्ति पश्चाद् ज्ञानानीत्यनेककारणेन पूर्वमज्ञानानामुपन्यासः पश्चात् ज्ञानानां । - पंचसंग्रह स्वोपज्ञवृत्ति, पृ. ६
३ ......... त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात् 'जीवति, अजीवीत् जीविष्यति' इति वा जीवः । - तत्त्वार्थराजवार्तिक २१/४
जीवस्थान - जो जीता है, जीता था और जीयेगा, इस प्रकार के कालिक जीवनगुण वाले को जीव कहते हैं । *
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