Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ५ होने वाले सामान्यबोध को चक्षुदर्शन कहकर शेष इन्द्रियों तथा मन द्वारा होने वाले सामान्यबोध का विस्तार न करके लाघव के लिये पृथक-पृथक् दर्शन न बताकर अचक्षुदर्शन में उनका समावेश कर लिया गया है। जिससे दर्शनोपयोग के चार भेद ही मानना युक्तिसंगत है।
एतद्विषयक विशेष विवेचन प्रथम कर्मग्रन्थ गाथा १० के टबा में किया गया है।
इस प्रकार दर्शनोपयोग के चार भेद और उनके लक्षण जानना चाहिये। उपयोगों का क्रमविन्यास
साकारोपयोग के पश्चात् अनाकारोपयोग का क्रमविधान प्रधाना
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चक्ष दर्शन आदि केवलदर्शन पर्यन्त दर्शन के चार भेद प्रसिद्ध हैं । मनःपर्यायदर्शन नहीं मानने का कारण यह है कि मनःपर्यायज्ञान अवधिज्ञान की तरह स्वमुखेन विषयों को नहीं जानता है, किन्तु परकीय मनप्रणाली से जानता है । यद्यपि मन अतीत व अनागत अर्थों का विचार, चिन्तन तो करता है, लेकिन देखता नहीं। इसी तरह मनःपर्यायज्ञानी भी भूत और भविष्यत् को जानता तो है किन्तु देखता नहीं। वह वर्तमान भी मन को विषय-विशेषाकार से जानता है, अतः सामान्यावलोकनपूर्वक प्रवृत्ति न होने से मनःपर्यायदर्शन नहीं माना जाता है। परन्तु किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने मनःपर्यायदर्शन को भी स्वीकार किया है--'केचित्तुमन्यन्ते प्रज्ञापनायां मनःपर्यायज्ञाने दर्शनतापठ्यते' (तत्त्वार्थभाष्य १/२४ की टीका)
___ यही दृष्टि श्र तदर्शन न मानने के लिये भी समझना चाहिये । क्योंकि श्रु तज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तथा श्र तज्ञान का व्यापार बाह्य पदार्थ है, अंतरंग नहीं; जबकि दर्शन का विषय अंतरंग पदार्थ है । इसलिये श्रुतज्ञान के पहले दर्शन नहीं होने से श्रुतदर्शन को पृथक् से मानने
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