Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ५
जीव को जीवित रहने के आधार हैं- द्रव्यप्राण और भावप्राण । इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास, ये द्रव्यप्राण' और ज्ञान, दर्शन, चैतन्य आदि भावप्राण कहलाते हैं । अतः जीव का लक्षण यह हुआ कि जो द्रव्य और भाव प्राणों से जीवित है, जीवित था और जीवित रहेगा, वह जीव है ।
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जीव अनन्त हैं और जीवत्व की अपेक्षा सभी जीवों का स्वरूप एक जैसा है । लेकिन जीवों के दो प्रकार हैं - संसारी और मुक्त | जन्ममरणरूप संसार में परिभ्रमण करने वाले कर्मबद्ध जीव संसारी और निःशेषरूप से कर्मावरण का क्षय करके आत्मस्वरूप में अवस्थित जीव मुक्त कहलाते हैं । इस प्रकार कर्मसहित और कर्मरहित अवस्था की दृष्टि से जीवों के ये भेद हैं ।
संसारी जीव भी अनन्त हैं और मुक्त जीव भी अनन्त हैं । इन दोनों प्रकार के जीवों में चैतन्यरूप भावप्राण तो समान रूप से रहते हैं । लेकिन संसारी जीव ज्ञान, दर्शन आदि भावप्राणों के साथ यथायोग्य इन्द्रिय आदि द्रव्यप्राणों सहित हैं और मुक्त जीवों में सिर्फ ज्ञान, दर्शन आदि गुणात्मकं भावप्राण होते हैं । जब तक इन्द्रिय आदि कर्मजन्य द्रव्यप्राण हैं और जीव कर्मबद्ध हैं, तब तक वे यथायोग्य इन्द्रियों आदि से युक्त हैं और कर्ममुक्त हो जाने पर उनमें सिर्फ ज्ञान, दर्शन आदि रूप चैतन्यपरिणाम -- भावप्राण रहते हैं ।
१ स्पर्शन, रसन आदि पांच इन्द्रिय, मन, वचन और काय ये तीन बल, श्वासोच्छ्वास और आयु, कुल मिलाकर दस द्रव्यप्राण होते हैंपंच वि इंदियपाणा मणवचिकायेसु तिणि बलपाणा । आणापाणपाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा ।। — गोम्मटसार जीवकांड, गाथा १२६
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तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य । ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ॥
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- द्रव्यसंग्रह, गाथा ३
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