Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ५
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अनुसन्धान आदि । ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा, ये एकार्थवाचक नाम हैं। मार्गणा के स्थानों को मार्गणास्थान कहते हैं। अर्थात् जिस प्रकार से प्रवचन में देखे गये हैं, उसी प्रकार से जीवादि पदार्थों का जिन भावा के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में विचार किया जाये, उन्हें मार्गणा कहते हैं । ' मार्गणाओं में जीवों की बाह्य गति, इन्द्रिय, शरीर आदि की विचारणा के साथ उनके आन्तरिक भावों, गुणस्थानों, योग, उपयोग, जीवस्थानों आदि का विचार किया जाता है।
गुणस्थान-ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि जीव के स्वभाव को गुण और उनके स्थान अर्थात् शुद्धि-अशुद्धि कृत गुणों के स्वरूपविशेष को गुणस्थान कहते हैं । अथवा दशनमोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित होते हैं, उन भावों को गुणस्थान कहते हैं। ___ जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान यद्यपि ये तीनों संसारी जीवों की अवस्थाओं के दर्शक हैं, तथापि इनमें यह अन्तर है कि
जीवस्थान जातिनामकर्म और पर्याप्त-अपर्याप्तनामकर्म के औदयिकभाव हैं।
मार्गणास्थान नामकर्म, मोहनीयकर्म, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय कर्म के औदयिक आदि भावरूप तथा पारिणामिक भावरूप हैं।
गुणस्थान मात्र मोहनीयकर्म के औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक भाव रूप तथा योग के भावाभाव रूप हैं।
१ (क) जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जते जहा तहा दिट्ठा । ताओ चोदस जाणे सुयणाणे मग्गणा होति ।।
-गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा १४० (ख) गोम्मटसार जीत्रकांड, गाथा ३ में विस्तार' और 'आदेश' ये दो
शब्द मार्गणा के नामान्तर कहे हैं।
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