Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
अथवा मन की पर्यायों - धर्म - बाह्यवस्तु के चिन्तन करने के प्रकार का विचार करने पर मनोवर्गणायें विशिष्ट आकार रूप में परिणत होती हैं, उनका जो ज्ञान है, वह मनःपर्यायज्ञान कहलाता है ।
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केवलज्ञान -- केवल अर्थात् एक । अतः एक जो ज्ञान वह केवलज्ञान है । एक होने का कारण यह है कि यह ज्ञान मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञाननिरपेक्ष है । जैसा कि शास्त्र में कहा है- 'नट्ठमि छाउमत्थिए नाणे" मत्यादि छाद्मस्थिक ज्ञानों के नष्ट होने पर केवलज्ञान होता हैं । अथवा केवल अर्थात् शुद्ध । अतः पूर्ण ज्ञान को आवृत करने वाले कममलरूप कलंक का सर्वथा नाश होने से शुद्ध जो ज्ञान है, वह केवल - ज्ञान है । अथवा केवल अर्थात् सम्पूर्ण । अतः केवलज्ञानावरण का सर्वथा क्षय होने से सम्पूर्णरूप में जो उत्पन्न होता है, वह केवलज्ञान है | अथवा केवल अर्थात् असाधारण । अतः उसके सदृश दूसरा ज्ञान न होने से जो असाधारण ज्ञान है, वह केवलज्ञान है । अथवा केवल अर्थात् अनन्त । अनन्त ज्ञेय वस्तुओं को जानने वाला होने से अनन्त जो ज्ञान है, वह केवलज्ञान है ।
१ आवश्यकनियुक्ति, गाथा ५३६
(क) शुद्ध वा केवलम्, तदावरणमलकलङ्कविगमात् । सकलं वा केवलम्, प्रथमत एवाऽशेषतदावरण विगमतः सम्पूर्णोत्पत्तेः । असाधारण वा केवलं, अनन्यसदृशत्वात् । अनन्तं वा केवलं ज्ञयानन्तत्वात् । केवलं च तद्ज्ञानं च केवलज्ञानम् ।
- पंचसंग्रह मलयगिरिटीका, पृ. ७
(ख) केवलमसहाय मद्वितीयं ज्ञानं केवलज्ञानमिति ।
- पंचसंग्रह स्वोपज्ञवृत्ति, पृ. ६
(ग) संपुष्णं तु समग्गं केवलमसवत्त सव्वभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेदव्वं ॥
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- गोम्मटसार जीवकांड, गाभा ४६० www.jainelibrary.org
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