Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगोपयोगमार्गणा : गाथा ४
वाचक है, उसको उभय वचनयोग कहते हैं तथा जो न सत्य रूप हो और न मषारूप ही, हो उसे असत्यामृषा-अनुभय वचनयोग कहते हैं ।
इस प्रकार मनोयोग और वचनयोग के चार-चार भेदों के लक्षणों का विचार करने के पश्चात् अब काययोग के सात भेदों के लक्षण बतलाते हैं। काययोग के भेदों के लक्षण ____ काययोग के सात भेदों में से आदि के छह भेदों का संकेत करने के लिए गाथा में 'वेउव्वाहारोरालमिस्ससुद्धाणि' पद दिया है। अर्थात् वैक्रिय, आहारक और औदारिक ये तीन शरीर मिश्र भी होते हैं और शुद्ध भी हैं। जिसका अर्थ यह हुआ कि मिश्र शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध होने से वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र और औदारिकमिश्र ये तीन भेद मिश्र के हुए और 'सुद्धाणि' यानी मिश्र शब्द के संयोग से रहित व क्रिय, आहारक और औदारिक ये तीन भेद शुद्ध के हैं। इस प्रकार से मिश्र और शुद्ध की अपेक्षा काययोग के छह भेदों के नाम यह हैं
१ वैक्रिय, २ वैक्रिय मिश्र, ३ आहारक, ४ आहारकमिश्र, ५ औदारिक, ६ औदारिकमिश्र ।
गाथा में उत्पत्ति क्रम को दृष्टि में रखकर मिश्र काययोगों का निर्देश करने के बाद शुद्ध काययोगों का निर्देश किया गया है। यानी पहले वैक्रियमिश्र, अनन्तर शुद्ध वैक्रिय काययोग आदि होते हैं।
१ दसविहसच्चे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो। । तन्विवरीमो मोसो जाणुभयं सच्चमोसोत्ति ॥
-गोम्मटसार, जीवकांड गा. २१६ २ जो णेव सच्चमोसो सो जाण असच्चमोसवचिजोगो।
-गोम्मटसार, जीवकांड गा. २२० ३ गाथायां पूर्व मिश्रनिर्देशो भवन क्रमसूचनार्थः ।
-पंचसंग्रह, मलयगिरि टीका पु. ५
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