Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ५
पयोगी है । अर्थात् ज्ञान यह घट है, यह पट है, इत्यादि रूप से प्रत्येक पदार्थ को उन-उनकी विशेषताओं की मुख्यता से विकल्प करके पृथक्पृथक् रूप से ग्रहण करता है और दर्शन पदार्थगत सामान्य अंश को ग्रहण करता है । यही उनके साकार और अनाकार कहलाने का कारण है ।
३३
उक्त कथन का सारांश यह है कि द्रव्य की स्वरूपव्यवस्था ही ज्ञान और दर्शन उपयोगों को क्रमशः साकार, अनाकार कहलाने की कारण है । क्योंकि वस्तु उत्पाद व्यय - ध्रौव्यात्मक है । उत्पाद - व्ययात्मक अंश पर्यायरूप और धौव्यात्मक अंश त्रिकाल अस्तित्व वाला है । प्रतिक्षण परिवर्तनशील होने के कारण पृथक्-पृथक् रूपों को धारण करने वाली होने से पर्यायों का कुछ-न-कुछ आकार अवश्य होता है, जिससे वे विशेष कहलाती हैं। लेकिन धौव्यात्मक रूप उन पर्यायों में सदैव अनुस्यूत रहता है । पर्यायों के परिवर्तित होते रहने पर भी वस्तु के अस्तित्व - सदात्मकता में किचिन्मात्र भी अन्तर नहीं पड़ता. न्यूनाधिकता नहीं आती । इसीलिये इस न्यूनाधिकता के न होने से वस्तु को अनाकार - सामान्यात्मक माना जाता है । उनमें से ज्ञान वस्तुगत विशेष धर्मो - उत्पत्ति-विनाशात्मक पर्यायों का बोध कराता है और दर्शन द्वारा वस्तु के सद्रूप ध्रौव्यात्मक सामान्यधर्म की प्रतीति होती है । इसी कारण ज्ञान और दर्शन साकार - अनाकारोपयोग के अपर नाम कहे जाते हैं ।
इस प्रकार उपयोग के प्रकारों का विचार करने के पश्चात् इन दोनों भेदों के नाम और संख्या पर विचार करते हैं ।
अब
ज्ञानोपयोग के भेद
वस्तु के विशेषधर्मग्राह ज्ञानोपयोग (साकारोपयोग ) के आठ भेद -' अन्नाणतिगं नाणाणि पंच' । वस्तु के यथार्थ बोध को ज्ञान कहते हैं और विपरीत ज्ञान को अज्ञान । अज्ञान शब्द में 'अ' मिथ्या - विपरीत अर्थ का वाचक है । उसके तीन भेद हैं - १ मति- अज्ञान, २ श्रुत-अज्ञान,
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org