________________ नैषधीयचरिते टीका-नृपस्य राज्ञो नलस्य दृष्टि: दृक् उद्वर्तयन्त्याः समालम्भनम् सुगन्धितद्रव्यलेपनमिति यावत् कुवाः कस्या अपि युवत्याः हृदये वक्षसि निपत्य पतित्वा अर्धः इन्दुः चन्द्रः ( कर्मघा० ) अथवा इन्दोः अर्धमिति अर्धेन्दुः (10 तत्पु० ) तद्वत् लीला शोभा ( उपमान तत्पु० ) येषां तथाभूतैः ( ब० वी० ) अर्धचन्द्राकारैरित्यर्थः नवानाम् कररुहाणाम् अङ्क: चिह्नः (10 तत्पु० ) संभोगकाले 'प्रणयि-कृत-नखक्षत-चिह्ररिति यावत् वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियोगिनः ते (एकशेष स० ) वैरात् शत्रुताकारणात् ( स० तत्पु० ) मनहस्तिता गलं हस्तेन गृहीत्वा निस्सारिता इव द्रुता त्वरिता एव न्यवृतत् निवृत्ता। नखक्षताङ्कितो तस्याः कुची दृष्टा नलः तत्सकाशात् स्वदृष्टि न्यवर्तयदिति भावः // 25 // व्याकरण-दृष्टि: / दृश् + क्तिन् ( भावे ) / वैरात् वीरस्य भाव इति वीर + अण् / गलहस्तिता गलहस्तः = हस्तेन गलस्य ग्रहणं सजातोऽस्या इति गलहस्त + इतच् + टाप् अथवा गलहस्तां गलहस्तवती ( 'सुखादयो वृत्तिविषये तद्वति वर्तन्ते') अथवा गलहस्तोऽस्या अस्तीति ( मतुवर्थीयोऽच ) गलहस्ता तां करोतीति गलहस्त + णिच् ( नामधातु) क्तः ( कर्मणि ) + टाप / न्यवृतत नि + Vवृत् + लुङ् 'युद्भयो लुङि' ( 1 / 3 / 81 ) से परस्मै० और घृतादि होने से अङ्। __ अनुवाद-राजा ( नल ) की दृष्टि, उबटन लगाती हुई (किसी ) युवती की छाती पर पड़कर ( उसके ) कुचों पर अर्धचन्द्राकार नख (क्षत - ) चिह्नों द्वारा, विरहियों से शत्रुता होने के कारण, गलहत्थी देकर निकाली जाती हुईजैसी शीघ्र ही वापस लौट आई // 25 // टिप्पणी-यहाँ पर-स्त्री की उघडी छाती देखकर नल का उस तरफ से दृष्टि खींच लेना धर्मानुसार उचित ही है किन्तु कवि की कल्पना यह है कि मानो कुचों के अर्ध-चन्द्रों ने गलहत्थी देकर विरही राजा की दृष्टि को निकाल परे कर दिया हो। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है / चन्द्र और अर्धचन्द्राकार कुचगत नखक्षतचिह्न-दोनों विरहियों के शत्रु हैं क्योंकि वे कामोद्दीपक होते हैं / अत एव वे उन दोनों को फूटी आँख भी नहीं देख सकते / नखाङ्कों की अर्धेन्दु से तुलना करने से उपमा भी है। विश्वकोष तो 'अर्धेन्दुश्चन्द्रशकले गलहस्तन्नखा. योः' लिखकर तीनों में समता के स्थान में अभेद ही कह गया है, क्योंकि