________________ षष्ठः सर्गः टीका-एकम् एकव्यक्त्या एव गम्यं वर्त्म मार्गम् एकपदीमित्यर्थः हित्वा त्यक्त्वा एव इह अन्तःपुरे भ्रमन्त्याः विचरन्त्याः स्त्रियाः नार्याः ( जातावेकवचनम् ) स्पर्शः संघट्टः सुखेन त्यक्त्तुं शक्यः सुत्यज इति अवेत्य विचार्येत्यर्थः सताम् सज्जनानाम् दीपः प्रदीप: स नलः लोकानाम् अत्रत्य-जनानाम् अवलोकाया दर्शनाय, लोकानामिति कर्मणि षष्ठी लोककमक-विलोकनायेत्यर्थः अथ च दोपपञ्चे. लोकानाम् इति कर्तरि षष्ठी अर्थात् लोककर्तृक-विलोकनाय चतुष्पथस्य चतुर्णी पथां समाहार इति ( समाहारद्वन्द्व ) तस्य = चत्वरस्य आभरणं अलङ्कारः बभूव सञ्जातः / एकपद्यां चलनेन स्त्रीणां स्पर्श परिहर्तु, गतागतं कुर्वाणान् जनान् विलोकयितुम् च नलो दीप इव चतुष्पथे स्थितवानिति भावः // 24 // व्याकरण- हित्वा हा + क्त्वा इत्वम् / स्पर्शः / स्पृश् + घन (भावे ) / सुत्यजः सु + त्यज् + खल् / अवेत्य अव + इ + ल्यप् , तुगागम / दीप; दीपयतीति /दीप् + णिच् + अच् ( कर्तरि ) / अवलोकः अव + लोक् + घन ( भावे ) / चतुष्पथम् समास में पथिन् को अ अन्तादेश और समाहार में नपुंसकत्व ( 'पथस्संख्याव्ययादेः' ) आभरणम् आ + भृ + ल्युट् / अनुवाद - 'पगडंडी को छोड़कर ही यहाँ आ जा रही स्त्रियों के स्पर्श से सहज ही बचा जा सकता है'-यह विचारकर सज्जनों के दीपक वे (नल ) लोगों को देखने हेतु चौराहे को अलंकृत कर बैठे // 24 // टिप्पणी-विद्याधर ने काव्यलिंग कहा है। राजा नल पर चतुष्पथस्थ दीप का आरोप होने से यहाँ रूपक है। दोनों में साम्य लोकावलोकाय' है / जिस तरह चौराहे के दीप प्रकाश द्वारा लोग ( मार्ग ) देखते हैं वैस ही नल भी लोगों को देख रहे हैं / हम ऊपर टीका में स्पष्ट कर ही चुके हैं कि नल के पक्ष मे-'लोकानाम्' कर्मणि षष्ठी है अर्थात् दीप द्वारा लोग देखते हैं। इसे हम विभक्ति-श्लेष कह सकते हैं / 'लोका' 'लोका' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। उद्वर्तयन्त्या हृदये निपत्य नृपस्य दृष्टिन्र्यवृतद्रुतैव / वियोगिवैरात्कुचयो खाङ्करर्धेन्दुलीलेगलहस्तितेव // 25 // अन्वयः-नृपस्य दृष्टिः उद्वर्तयन्त्याः ( कस्या अपि युवत्याः ) हृदये निपत्य अर्धेन्दुलीलैः कुचयोः नखाङ्कः ( कर्तृभिः) वियोगि-वैरात् गलहस्तिता इव द्रता एव न्यवृतत् /