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मोक्षमार्ग प्रकाशक- ६
द्रव्य चतुष्टय की अपेक्षा नमस्कार
बहुरि चैत्यालय, आर्यिका, उत्कृष्ट श्रावक आदि द्रव्य अर तीर्थक्षेत्रादि क्षेत्र अर कल्याणककाल आदि काल, रत्नन्नय आदि भाव, नेर नमस्कार कलेचनिकों नमस्कार करूं ही अर (जे) किंचित् विनय करने योग्य हैं तिनका यथायोग्य विनय करौं ह्रीं । ऐसे अपने इष्टनिका सन्मानकरि मंगल किया है। अब ए अरहंतादिक इष्ट कैसे हैं, सो विचार करिए है -
जा करि सुख उपजै वा दुःख विनसे तिस कारिज ( कार्य ) का नाम प्रयोजन है। बहुरि तिस प्रयोजनकी जाकर सिद्धि होय सो ही अपना इष्ट है। सो हमारे इस अवसरविषे वीतरागविशेष ज्ञान का होना सो प्रयोजन है, जातें याकरि निराकुल सांचे सुख की प्राप्ति हो है अर सर्व आकुलतारूप दुःखका नास हो है । बहुरि इस प्रयोजनकी सिद्धि अरहंतादिकनिकरि हो है । कैसे, सो विचारिए हैं
अरहन्तादिकों से प्रयोजनसिद्धि
आत्मा के परिणाम तीन प्रकार हैं- संक्लेश, विशुद्ध, शुद्ध ।' तहाँ तीव्र कषायरूप संक्लेश है, मंद कषायरूप विशुद्ध है, कषायरहित शुद्ध है। तहाँ वीतरागविशेष ज्ञानरूप अपने स्वभाव के घातक जु हैं ज्ञानावरणादि घातियाकर्म, तिनिका संक्लेश परिणाम करि तौ तीव्र बन्ध हो है, अर विशुद्ध परिणामकरि मंद बन्ध हो हैं वा विशुद्ध परिणाम प्रबल होइ ती पूर्वे जो तीव्रबंध भया था ताकों भी मंद करै है, अर शुद्ध परिणामकरि बन्धन हो है, केवल तिनकी निर्जरा ही हो हैं। सो अरहंतादिविषै स्तवनादि रूप भाव हो है सो कषायनिकी मन्दता लिये ही हो है तातें विशुद्ध परिणाम है। बहुरि समस्त कषाय मिटावने का साधन है तातें शुद्ध परिणाम का कारण है सो ऐसे परिणाम करि अपना घातक धातिकर्म का हीनपनाके होने, सहज ही वीतराग विशेषज्ञान प्रगट हो है। जितने अंशनिकरि वह हीन होय तितने अंशनिकरि यहु प्रगट होइ ऐसे अरहंतादिक करि अपना प्रयोजन सिद्ध हो है ।
दर्शन - स्मरण से कषायों की शिथिलता
अथवा अरहंतादिक का आकार अवलोकमा वा स्वरूप विचार करना वा वचन सुनना वा निकटवर्ती होना वा तिनके अनुसारि प्रवर्तना इत्यादि कार्य तत्काल ही निमित्तभूत होइ रागादिकनिको हीन करे है। जीव अजीवादिक का विशेषज्ञान को उपजावै है । तातैं ऐसे भी अरहंतादिक करि वीतराग विशेषज्ञानरूप प्रयोजन की सिद्धि हो है ।
इहाँ कोऊ कहै कि इनिकरि ऐसे प्रयोजन की तो सिद्धि ऐसे हो है बहुरि जाकरि इन्द्रियजनित सुख उपजै, दुःख दिनसे ऐसे भी प्रयोजन की सिद्धि इन करि हो है कि नाहीं? ताका समाधानअरहन्तादि से सांसारिक प्रयोजन की सिद्धि
जो अरहंतादि विषै स्तवनादिरूप विशुद्ध परिणाम हो है ताकरि अघातिया कर्मनि की साता आदि १. प्र. सा. अ. १ गाथा ६ । २. गो. क. गाथा १६३ ।