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मोक्षमार्ग प्रकाशक-४
को सधा हैं। बहुरि बाह्यतपकी साधनभूत तपश्चरण आदि क्रियानिविषै प्रवर्ती हैं वा कदाचित भक्ति-वन्दनादि कार्यनिवर्षे प्रवर्ते हैं। ऐसे आत्मस्वभाव के साधक साधु हैं तिनिको हमारा नमस्कार होउ।
पूज्यत्व का कारण ऐसे इन अरहंतादिकनि का स्वरूप है सो दीतराग विज्ञानमय है। तिसही करि अरहतादिक स्तुति योग्य महान् भये हैं; जातें जीवतत्त्व करि ती सर्व ही जीव समान हैं परन्तु रागादिविकारनिकरि वा ज्ञानकी हीनताकरि ती जीव निन्दा योग्य हो हैं। बहुरि रागादिककी हीनताकरि वा ज्ञानकी विशेषताकरि स्तुति योग्य हो हैं। सो अरहंत सिद्धनि के तौ सम्पूर्ण रागादिककी हीनता अर ज्ञानकी विशेषता होने करि सम्पूर्ण वीतरागविज्ञान भाय संभव है। अर आचार्य उपाध्याय साधुनिकै एकोदेश रागादिककी हीनता अर ज्ञानकी विशेषता होन कार एकोदेश यतिरागविज्ञान संभव है। तातें ते अरहंतादिक स्तुति योग्य महान जानने।
परमेष्ठी के स्वरूप का उपसंहार बहुरि ए अरहंतादिक पद है तिन विष ऐसा जानना जो मुख्यपने ती तीर्थकरका अर गौणपने सर्वकेवली का ग्रहण है, यहु पदका प्राकृत भाषावि अरहंत अर संस्कृतविर्षे अईतू ऐसा नाम जानना । बहुरि चौदवाँ गुणस्थान के अनंतर समयतें लगाय सिझनाम जानना। बहुरि जिनको आचार्यपद भया होय ते संघविषै रहो वा एकाकी आत्मथ्यान करो वा एकाविहारी होहु वा आचार्यनिविषै भी प्रधानताको पाय गणधरपदी के धारक होहु, तिन सबनिका नाम आचार्य कहिये है। बहुरि पठन-पाठन तो अन्यमुनि भी करै हैं परन्तु जिनके आचार्यनिकरि दिया उपाध्याय पद भया होइ ते आत्मध्यानादि कार्य करतें भी उपाध्याय ही नाम पावै हैं। बहुरि जे पदवीधारक नाही ते सर्व मुनि साधुसंज्ञा के धारक जानने । इहाँ ऐसा नाही नियम है जो पंचाचारनि करि आचार्य पद हो है, पठनपाठनकरि उपाध्यायपद हो है, मूलगुण साधनकरि साधुपद हो है। जाते ए तो क्रिया सर्वमुनिन के साधारण हैं परन्तु शब्द नयकरि तिनका अक्षरार्थ तैसे करिये है। समभिरूढ़नय करि पदवीकी अपेक्षा ही आचार्यादिक नाम जानने। जैसे शब्द नयकरि गमन करै सो गऊ कहिये सो गमन तो मनुष्यादिक भी करै है परन्तु समभिरूढ़ नयकरि पर्याय अपेक्षा नाम है, तैसे ही यहाँ समझना।
इहाँ सिद्धनिके पहले अरहंतनिको नमस्कार किया सो कौन कारण? ऐसा सन्देह उपजे है। ताका समाधान यह है
नमस्कार करिये है सो अपने प्रयोजन साधने की अपेक्षा करिये है, सो अरहंतनित उपदेशादिकका प्रयोजन विशेष सिद्ध हो है, तातें पहले नमस्कार किया है। या प्रकार अरहंतादिकनि का स्वरूप चितवन किया। जाते स्वरूप-चितवन किये विशेष कार्यसिद्धि हो है। बहुरि इन अरहतादिक ही को पंचपरमेष्ठी कहिये है। जाते जो सर्वोत्कृष्ट इष्ट होइ ताका नाम परमेष्ट है। पंच जे परमेष्ट तिनिका समाहार समुदाय ताका नाम पंचपरमेष्ठी जानना।
१. धवला प्र. पु. पृ. ५४१