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महापुराण
जो भयवंतो जमकरणवह
अण्णाणमहं
णिहारयिं
अवसावसणं
आसासमणं
वररमणीसं
णीसं सालं परसमयंत
अहिवं दिययं जेणें ण कहियं णिरुवमदेह
मणि जाएण किंपि अमणोज्जें निव्विण्णेड थिड जाम महाकइ भइ भडारी सुहयरुओह
जो भयवंतो ।
जमकरणवहं । सामहं ।
णिहार हियं ।
आसावसणं ।
आसासमणं ।
वररमणीसं ।
णीसं सालं । परसमयं तं ।
घत्ता - पुणु पणविवि पंच वि परमगुरु णियजसु तिजगि पयासैवि ॥ दुरियपडलणिण्णासयरु अजियहु चरिउ समासवि ॥१॥
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सुहदिययं । तेलोक्कहियं ।
तं वंदेहं ।
[ ३८. १. १४
कइवेयदियहईं केण वि कजें । ता सिविणंतरि पत्त सरासइ । पण अरुहं सुहरु मेहं ।
वाले स्वामी हैं, जो ज्ञानवान् और सात भयोंका नाश करनेवाले हैं, जो रोगादिका विनाश करनेवाले यमों और व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले हैं, जो अज्ञानका नाश करनेवाले ज्ञानको धारण करते हैं, जो निद्रा और कलत्रसे रहित हैं, जो शापसे शून्य और दिशारूपी वस्त्रोंको धारण करते हैं, जो सब ओर त्रैलोक्यरूपी लक्ष्मीसे विलसित हैं, जो आशा के शामक और मुक्तिरूपो रमणीके ईश हैं, जिनकी बुद्धि वर देनेवाली है, जो मनुष्योंको प्रशंसासे युक्त हैं, जो संसारका परित्याग कर चुके हैं, जो पर सिद्धान्तोंका अन्त करनेवाले हैं, जो श्रेष्ठ शान्तिसे रमणीय, और नागराजके द्वारा अभिनन्दनीय हैं, जिन्होंने इन्द्रियजन्य सुखको सुख नहीं माना, तथा जो अनुपम और अशरीरी हैं, ऐसे अजितनाथकी में वन्दना करता हूँ ।
घत्ता - पाँचों परमगुरुओं ( पाँच परमेष्ठियों ) को प्रणाम कर तथा अपने यशको तोनों लोकों में प्रकाशित कर घन पाप पटल के नाशक श्री अजितनाथके चरितका संक्षेपमें कथन करता हूँ ।
२
कई दिनों तक किसी कारण, मन में कुछ असुन्दर बात हो जानेसे जब कवि उदासीन था तो उसे सपने में सरस्वती प्राप्त हुई । आदरणीया वह कहती हैं- "संसारके रोगसमूहका नाश करनेवाले तथा पुण्यरूपो वृक्षके मेघ श्री अरहन्तको तुम नमस्कार करो ।”
३. A णिंदारहियं । ४. P जेण णं । ५. AP पयासमि । ६. AP समासमि ।
२.
१. A कश्वयदियहें; P कइवयइ दियहें । २. K णिग्विणोउ थिउ but gloss निर्विण्णः; P णिव्विणु उट्टिउ । ३. A पणमहु; P पणवह । ४. A सुहयरमेहं but gloss in K शुभतरुमेघम् ।
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